बुधवार, 25 दिसंबर 2013

कांग्रेस में भारी बदलाव के संकेत...


छत्तीसगढ़ कांग्रेस की कमान जिस आनन फानन में भूपेश बघेल को सौंपा गया वह हतप्रभ कर देने वाला है। चुपचाप हुए इस बदलाव को लेकर राजनैतिक अटकलें जोरों पर है। गुपचुप हुए इस बदलाव से साफ है कि अब कांग्रेस की राजनीति अपने पुराने ढर्रे से अलग समय के साथ चलने को कोशिश में है।
दो हजार तीन के चुनाव में सत्ता जाने के बाद प्रदेश कांग्रेस की राजनीति मोतीलाल वोरा के अनरूप चल रही थी। अजीत जोगी के विरोध और मोतीलाल वोरा के समर्थन के बीच कांग्रेस के नेताओं से लेकर कार्यकर्ताओं में आपाधायी रही। तमाम जोगी विरोधियों की एका भी यहां कुछ नहीं कर पा रहे थे तो इसकी वजह सत्ता का वह गोपनीय सुख भी रहा है जो रमन सरकार से गाहे-बगाहे मिलने लगा था।
लगातार पराजय से कांग्रेस के कार्यकर्ता हताश और निराश होने लगे थे तभी नंदकुमार पटेल की नियुक्ति ने नई जान फूंकने की कोशिश तो की लेकिन यह अंजाम तक नहीं पहुंच सका नक्सली हमले के बाद आई रिक्तता को भरने चरण दास महंत को अध्यक्ष तो बना दिया गया लेकिन उनकी नियुक्ति के साथ ही अपना संदेह जब विधानसभा चुनाव में सच साबित हुआ तब जब महंत का हटना तय माना तो जा रहा था लेकिन इसकी जगह में भूपेश बघेल की नियुक्ति हो जायेगी यह किसी ने नहीं सोचा था।
भूपेश बघेल आम तौर पर जोशिले नेता माने जाते है और कहा यह भी जाता है कि वे अपने जोश में यह भी भूल जाते है कि उनके कार्यों का फायदा भले ही पार्टी को मिले लेकिन उनका अपना नुकसान हो सकता है।
यही वजह है कि सीधा हमला बोलने में माहिर भूपेश बघेल को नेतृत्व देने से कांग्रेस बचते रही है। छत्तीसगढ़ स्वाभिमान यात्रा हो या झीरम घाटी में कांग्रेस नेताओं की हत्या के बाद रमन सिंह द्वारा ब्रम्हास्त्र चला देने का बोल हो पार्टी के दूसरे नेता असहज होते रहे है। लेकिन बघेल ने कभी इसकी परवाह नहीं की कि उनके बोल से उनका अहित हो सकता है।
यही वजह है कि वे किसी गुर विशेष से परे राजनीति करते रहे। भूपेश बघेल को वर्तमान राजनीति में भले ही जोगी विरोधी माना जाता रहा हो पर सच तो यह है कि वे विरोध की राजनीति पर भरोसा नहीं करते। यही वजह है कि तत्काल प्रतिक्रिया देने में माहिर भूपेश की नियुक्ति पर अजीत जोगी ने भी प्रशंसा की। पिछले दस सालों में सत्ता से सेटिंग कर कांग्रेस की राजनीति करने वाले भले ही इस नियुक्ति पर खुश न हो लेकिन एक आम कांग्रेसी खुश है कि छत्तीसगढ़ में अब कांग्रेस को बेचा नहीं जायेगा और लोकसभा चुनाव में बेहतर परिणाम आयेगा। राजनीति के समझदारों का यह भी कहना है कि भूपेश बघेल में ही वह ताकत है जो खेमेबाजी को साध सकते है।

जोगी को गुस्सा क्यों आता है...


अपने परिवार के राजनैतिक राह का फैसला सोनिया-राहुल गांधी के द्वारा करने का दावा करने वाले प्रदेश के पहले मुख्यमंत्री अजीत प्रमोद कुमार जोगी के लोकसभा चुनाव नहीं लडऩे की घोषणा कर कांग्रेस की राजनीति में एक बार फिर हलचल मचा दी है।
नये प्रदेशाध्यक्ष भूपेश बघेल की ताजपोशी की खबर के साथ ही आये अजीत जोगी के इस फैसले के मायने आसानी से इसलिए भी लगाये जा रहे है क्योंकि भूपेश बघेल को धुर जोगी विरोधी माना जाता है।  विधानसभा चुनाव की टिकिट को लेकर अजीत जोगी के तेवर किसी से छिपा नहीं है। ऐसे में भूपेश बघेल के पदभार ग्रहण और उससे पहले स्वागत के कार्यक्रम से जोगी परिवार की दूरी ही चर्चा का विषय नहीं है बल्कि चर्चा का विषय तो उनके लिए आसानी से उपलब्ध सरकारी विमान भी है। इस बात में जरा भी संदेह नहीं है कि छत्तीसगढ़ के कांग्रेसी राजनीति में जोगी के मुकाबले कोई नेता नहीं है और यही वजह है कि अब लोग मजाक में भी यह करने लगे हैं कि छत्तीसगढ़ में कांग्रेस की सत्ता में वापसी तब तक नहीं होगी जब तक अमित जोगी मुख्यमंत्री पद के लिए तैयार नहीं हो जाते। इस मजाक के मायने आसानी से लगाये जा सकते हैं। लेकिन पिछले तीन चुनाव में कांग्रेस की हार की जितनी भी समीक्षा हुई उसमें अजीत जोगी चर्चा के केन्द्र में रहे हैं। विधानसभा चुनाव हो या लोकसभा चुनाव कांग्रेस को जिस तरह से हार का मुंह देखना पड़ रहा है उसमें गुटबाजी ही प्रमुख वजह रही है और लगता है कांग्रेस के दिग्गज माने जाने वाले नेता लगातार पराजय के बाद भी सबक लेने को तैयार नहीं है। अजीत जोगी के प्रभाव वाले आरक्षित सीटों में कांग्रेस की हार को लेकर जिस तरह से जोगी निशाने में है उसके बाद भी अब कांग्रेस उसकी परवाह करे यह संभव नहीं दिख रहा है और यही वजह है कि प्रदेश अध्यक्ष की नियुक्ति की। खबर से अजीत जोगी भले ही एतराज नहीं कर पाये लेकिन चुनाव नहींं लडऩे की घोषणा नाखुशी जाहिर करने का माध्यम माना जा रहा है।
सत्ता में वापसी की आस में बैठी कांग्रेस के लिए चुनाव परिणाम जितना दुखद माना जा रहा है उससे ज्यादा परिणाम को लेकर आ रही खबरें दुखद है। पार्टी के ही नेताओं के द्वारा जिस पैमाने पर भीतरघात हुआ उससे तो इस तरह के परिणाम पहले से ही तय थे। अजीत जोगी ने चुनाव नहीं लडऩे की घोषणा का भले ही जो कारण बताये हो पर सच तो यही है कि यह एक तरह का गुस्से के सिवाय कुछ नही है जो दबाव की राजनीति का हिस्सा माना जाता है अब देखना है कि वे सरकारी विमान के सफर पर ज्यादा यकीन करते हैं या हाईकमान के निर्णय का...।

शुक्रवार, 20 दिसंबर 2013

लोकपाल तो पहले ही पास हो गया था...


एक समाजवादी नेता मुलायम सिंह को छोड़ सभी ने 46 साल से चली आ रही मांग को संसद के दोनों सदनों में झटके से पास कर अपनी पीठ थपथपाने में लगे हैं। मानों वे देश में व्याप्त भ्रष्टाचार के प्रति न केवल चिंतित है बल्कि वे इसका समूल नाश करने की ईच्छा रखते हैं। पर क्या सच यही हैं और यह सच है तब इसे इतने साल क्यों लगे। वास्तव में सच तो यह है कि लोकपाल बिल तो उसी दिन पास हो गया था। जब अन्ना हजारे के अनशन में पूरी देश लोकपाल के लिए खड़ा हो गया था। जनप्रतिनिधियों ने तो जनता के दबाव में केवल औपचारिकता निभाई है। हम पहले भी इसी जगह पर लिखते रहे हैं कि जनमत को नजर अंदाज कर न तो सरकार अपना भला कर सकती है और न ही इससे लोकतंत्र का ही भला होना है। सत्ता और बहुमत के दम पर इमरजेंसी तो लगाया जा सकता है लेकिन कुर्सी हासिल नहीं हो सकती है और यह देश इस बात की गवाह है।  सत्ता हासिल करने राजनीतिक दल वोट बैंक के खेल में सामाजिक-धार्मिक ध्रुवीकरण तक सत्ता तक पहुंच तो सकते हैं लेकिन यह खेल लंबा नहीं चलता। इस देश ने ऐसे किसी भी ध्रुवीकरण को कभी तरजीह नहीं देती। गंगा जमुनी संस्कृति पर प्रहार न तो कभी बर्दाश्त हुआ है और न ही बर्दाश्त किया जायेगा। लोकतंत्र को खंडित करते वोट बैंक की राजनीति पर हम फिर कभी चर्चा करेंगे आज तो 46 साल के लम्बे इंतजार के बाद पास हुए लोकपाल पर ही चर्चा होनी चाहिए। आखिर एक झटके में लोकपाल बिल पारित करने की जरूरत तमाम राजनैतिक दलों को क्यों आन पड़ी। यह एक ऐसा सवाल है जिसका जवाब अन्ना हजारे और केजरीवाल तक पहुंचता है। चार राज्यों के चुनाव परिणाम ने कांग्रेस को जितना सांसत में डाला उससे कहीं अधिक भाजपा को दिल्ली के नतीजे के सांसत में डाल दिया है।
सच तो यह है कि लोकपाल को लेकर अन्ना हजारे के आंदोलन की उपज आम आदमी पार्टी से भाजपा की बेचैनी बड़ गई है। भले ही यह बात मजाक में कही जा रही हो कि अन्ना हजारे ने अनशन में बैठने के बाद इसी सत्र में लोकपाल बिल पास कराने की जो चिट्ठी सोनिया गांधी और राजनाथ सिंह को भेजी थी उसके साथ अलग से एक पर्ची भी थी कि यदि इस सत्र में बिल पास न हुआ तो अभी तो एक केजरीवाल से परेशान हो और भी केजरीवाल खड़ा कर दूंगा।  सच तो यही है कि शीत सत्र में लोकपाल बिल पास करने की जल्दबाजी और एक जुटता भी इसी मजाक के हकीकत के आस पास ही है। आज लोग भ्रष्टाचार से त्रस्त है। अपने हिस्से का विकास पीडिय़ों के लिए जमा करते नेताओं और नौकरशाहों को देखकर वे आक्रोशित हैं लोकपाल बिल से इन पर अंकुश लगेगा और सभी पार्टियों में ईमानदार लोगों का महत्व बढ़ेगा इसी उम्मीद के साथ...।

तेजपाल के बहाने...


इस पत्रकारिता पर एक और धब्बा कहें या क्या कहें, पर पत्रकारिता को लेकर पिछले दशक भर से चल रही चर्चा में तहलका के संपादक तरूण तेजपाल कांड ने इस मिशन को फिर घेरे में लिया है।
तरूण तेजपाल ने जिस तरह की पत्रकारिता की थी उसमें का यह नि:संदेह निदंनीय है। जो लोग समाज में आईना है इन दिनों उन पर सबकी निगाह है ऐसे में उनके चरित्र और व्यवहार में नैतिकता होनी ही चाहिए।
छत्तीसगढ़ में पत्रकारिता का अपना एक इतिहास है। माधव राव सप्रे से लेकर ऐसे कितने ही नाम है जो पत्रकारिता की स्वच्छता के लिए आज भी संघर्ष कर रहे हैं। जिनका ध्येय सिर्फ लोगों तक खबरें परोसना ही नहीं है बल्कि समाज को कुरुतियों को दूर भगाना भी है। तरूण तेजपाल के मामले में भी न्याय होगा लेकिन हम उम्मीद करते है कि छत्तीसगढ़ में बैठे बड़े अखबार समूह पत्रकारिता को लेकर न केवल गंभीर होंगे बल्कि इसे कलंकित होने के किसी भी खबरों से दूर रखेंगे।
यह सच है कि बड़े बड़े समूहों ने सरकारी सुविधा जुटाने तिकड़म किया हो। सरकारी विज्ञापनों के लिए सरकार की तिमारदारी की हो पर छत्तीसगढ़ में पत्रकारिता आज भी गौरवशाली है तो इसकी वजह यहां के पत्रकार है जिन्होंने तमाम अवरोधों के बाद भी खबरों से समझौता नहीं किया। ताकत पर नौकरशाह और ताकतवर सरकार के खिलाफ लिखने से गुरेज नहीं किया और यह आगे भी जारी रहेगा।
छत्तीसगढ़ की पत्रकारिता में भी महिला पत्रकारों की कमी नहीं रही है। शशि परगनिहा, रत्ना वर्मा से लेकर ऐसे कितने ही नाम है जिन्होंने समय समय पर अपनी खबरो से हलचल मचाई है और अब तो प्राय: हर अखबार व न्यूज चैनलों के दफ्तरों में महिला पत्रकार देखे जा सकते हैं। उन पर दबाव का अंदेशा भी होता है। ऐसे में शोमा चौधरी, जैसे तेजपाल के सहयोगियों की भी कमी नहीं होगी लेकिन इस सबके बाद भी प्रबंधन को तय करना होगा कि वह ऐसी घटना पर सतर्क रहे ताकि पत्रकारिता पर कोई आंच न आये।
जिस तरह से अखबार समूह को अधिकाधिक धन कमाने की लालसा है कैसा ही आम लोगों की उम्मीद भी बढ़ी हुई है और आज का युवा तो सोशल नेटवर्क का इस्तेमाल कर खबरों का खुलासा कर ही देता है इसलिए बेवजह खबरें छुपाकर स्वयं को बदनाम करने की प्रवृत्ति से भी बचना चाहिए। तहलका के तरूण तेजपाल ने जिस तेजी से अपनी जगह बनाई थी उतनी तेजी सभी चाहते है पर यह ध्यान रहे कि आप जब सबका आईना बनते हो तो आईने में दाग का भी ध्यान रखे क्योंकि नैतिकता की दुहाई तभी अच्छी लगती है जब आप स्वयं नैतिकता पर चल रहे है। अन्यथा तरूण तेजपाल बनने में समय नहीं लगता।

सोमवार, 30 सितंबर 2013

पुलिसिया मनमानी पर सरकार की चुप्पी..!


छत्तीसगढ़ में पुलिस की मनमानी पर सरकार की नहीं चलती, शराब ठेकेदार, माफिया और राजनैतिक दबाव की आड़ में पुलिस कानून का मजाक बना रही है और गृह मंत्री ननकी राम कंवर कार्रवाई की बजाय बतोले बाजी में लगे हैं। मुख्यमंत्री से लेकर राजधानी के दो-दो मंत्रियों के रहते थानेदारों की करतूत चरम पर है7 आम लोगों का जीना दूभर होने लगा हे और अपराधिक तत्वों के हौसले बुलंद है।
दहेज मामले में बिना काऊसिंलिग के सीधे एफ आई आर दर्ज करने थाने में बिढाने के मामले में जब एएसपी श्वेता सिन्हा कहती है कि पुलिस के पास अधिकार है तो समझा जा सकता है कि वह क कहना चाह रही है।
ऐसा नहीं है कि पुलिसिया करतूत का यह पहला मामला है। पंडरी, मोवा, से लेकर गुढिय़ारी उरला तक पुलिस वालों का यही हाल है वर्दी के धौंस से आम आदमी का खून चूसने की कोशिश में लगी राजधानी पुलिस पर रिपोर्ट कर्ताओं से बदसलूकी, अपराधियों से सांठ-गांठ के ढेरो मामले हैं।
छत्तीसगढ़ पुलिस के बारे में गृहमंत्री ननकीराम कंवर का विधानसभा में यह कहना कि दस-दस हजार रूपये में शराब ठेकेदारों के हाथों थाने बिक रहे हैं समझा जा सकताह ै कि भाजपा राज का यह केसा सुराज है। गृहमंत्री ने एस पी को निकम्मा और कलेक्टर को दलाल तक का तमगा दिया है।
लेकिन प्रदेश के कथित साफ छवि वाले मुखिया को यह सब नहीं दिखता। नहीं दिखता तो शहर के मंत्रियों और जनप्रतिनिधि को भी लेकिन कोई कुछ नहीं कह रहा है।
जैनमूर्ति चोरी कांड हो या डाल्फिन स्कूल के संचालक राजेश शर्मा, सदर के सेठ मन्नू नत्थानी का मामला हो या मौदाहापारा में पुलिस वालों की भरपुर पिटाईका मामला हो। जनप्रतिनिधियों को कुछ नहीं दिखता। त्यौहारी सीजन से लेकर महिने के आखरी में यातायात के नाम पर वसूली का मामला हो जनप्रतिनिधि खामोश है।
पुलिसिया आतंक को सरकार का इस तरह से समर्थन और अपराधियों को संरक्षण ने राजधानी को अपराध गढ़ बना दिया है। विवदास्पद पुलिस वालों को संविदा देकर सरकार ने क्यया साबित किया है वह तो वही जाने लेकिन राजधानी के एस पी ओपी पॉल का 6 माह की छूट्टी का आवेदन यह साबित करने के लिए काफी है कि भाजपा सरकार की मंशा क्या है।
बिलासपुर के तत्कालीन एसपी राहुल शर्मा के अपराधी क्यों छुट्टी घूम रहे हैं और जब सत्ता में नहीं थी तब जिन पुलिस वालों का जुलूस निकालकर कार्रवाई की मांग की जा रही थी वे पुलिस वाले क्यों महत्वपूर्ण पदों पर बैठे हैं यह समझा जा सकता है।
अपराध गढ में तब्दिल होते राजधानी में पुलिसिया व्यवहार को लेकर अधिकारियों का प्रवचन सतत जारी है लेकिन महिना वसूलने में माहिर थाने दारों पर कार्रवाई की बजाय कमीशन लेने की परम्परा ने इस शांत प्रदेश को अशांत जरूर कर दिया है।

ये कैसा न्याय, कैसी सरकार...


कहने को तो लोकतंत्र में जनता की सरकार है पर क्या यह सच है। जनता की आवाज को कुचलने का कुचक्र नहीं हो रहा है। लोकतंत्र के संबैधानिक ढांचे को तोडऩे की कोशिश नहीं हो रही है। आज नेता के नाम से लोगों की जुबानं वजह उनकी अपनी करतूत है।
प्रदेश की हो या देश की। सरकार कहीं की भी हो सत्ता का दंभ साफ दिखाई दे रहा है। लोक लाज के मायने बदल गये हे तभी तो अपराधियों को संसद और विधानसभा में रोकने के पवित्र फैसले के खिलाफ adhyades. लाया gaya। सरकार इस पर चर्चा कराने तक से बच रही है। न्याय मंदिर के एक पवित्र फैसले को लात मारने की कोशिश लोकतंत्र को कहां ले जायेगी। इसके दुष्परिणाम को कौन भुगतेगा! यह तो समय के बाद ही पता चलेगा लेकिन इसके परिणाम गलत हो होगा यह साफ दिखाई दे रहा है।
लोकपाल बिल से लेकर आरटीआई कानून में राजनैतिक दलों को शामिल करने का मामला हो या अपने वेतन भत्ते या दूसरी सुविधाओं का मामला हो। सभी पार्टियां अपने हितों के लिए एक हो रही है। आम आदमी मरे या जिये उन्हें कोई सरोकार नहीं है। मिल बैठकर देश को लुटने की साजिश और अपनी सात पीढिय़ों की व्यवस्था में लगे लोग शायद ये भूल गये है कि इन सबसे उपर भी कोइ्र है जो बेआवाज लाढी से सब कुछ ठीक कर देगा।
देश की सरकार की करतूतों पर प्रहार करने वाली भाजपा छत्तीसगढ़ में सरकार बनी बैठील है। क्या उनकी करतूत कांग्रेस से कम है। भटगांव कोल ब्लॉक की कालिख का मामला हो या उद्योग को रोगदा बांध बेचने का मामला हो। उद्योगों के लिए जमीन छिनने का मामला हो या दूसरे हिस्सों की सुविधा छिन अपने बंगले या नई राजधानी पर करोड़ों अरबों खर्च करने का मामला हो। भयावह भ्रष्टाचार और भयावह नक्सली हमले क्या नहीं हो रहा है प्रदेश में। क्या यह सब बहुमत के दम पर नहीं हो रहा है।
भ्रष्टाचार में गले तक ढुबे अधिकारियों को अपनी गोद में सरकार नहीं बिठा रखी है। बाबूलाल अग्रवाल से लेकर न जाने कितने अधिकारी है जिन पर कार्रवाई लंबित रख कर महत्वपूर्ण पदों पर बिठाया गया है। ईमानदार माने जाने वाले अधिकारियों को प्रताडि़त करने की नई परम्परा शुरू की गई है। बिलासपुर के तत्कालीन पुलिस कप्तान राहुल शर्मा की हत्या (?)का मामला हो या राजधानी के पुलिस कप्तान का 6 माह के लिए छुट्टी पर जाने के आवेदन का मामला हो। कहां न्याय हो रहा है।
न्याय तो मुख्य सचिव सुनील कुमार के सीबीआई जांच के मामले की भी नहीं हो रही है। न्याय तो नक्सलियों से जनप्रतिनिधियों से संबंधो पर भी नहीं हो रही है। बहुमत के दम पर अपराधियों को खुले आम संरक्षण दिया जा रहा है। पत्रकारों पर हमले करने वालों में से एक सचिन मेघानी का सार्वजनिक सम्मान कर यदि सरकार यह सोचती है कि वह हैट्रिक भी मार लेगी तो वह गलत इसलिए नहीं सोचती क्योंकि वे लोग हैं भी इसी लायक ? यदि जैन मूतिर्यों के आरोपी को संरक्षण देने के बाद भी जीत का रास्ता देखा जाता है तो इसकी वजह साफ है कि सत्ता में दम है। तभी तो अन्ना हजारे का आन्दोलन प्रबल जनसमर्थन के बाद भी फिस्स हो गया। और अरविन्द केजरीवाल को सत्ता का रास्ता चुनना पड़ रहा है।

रविवार, 29 सितंबर 2013

समय होत बलवान्...



चुनाव के पहले न तो राजनैतिक दलों की अकुलाहट नई है और न ही प्रशासनिक अमलों का बदलता रूख ही नया है। लेकिन छत्तीसगढ़ में हैट्रिक में जुटी रमन सरकार के मंत्रियों और मुख्य सचिव सुनील कुमार के बीच टकराहट की खबर सुर्खियों में आना जरूर नया है।
कोयले की कालिख से लेकर इंदिरा बैंक घोटाले के नार्को सीडी तक भ्रष्टाचार में डुबी रमन सरकार ने जब सुनील कुमार को मुख्यसचिव  बनाया था तभी से यह साफ दिखने लगा था कि सरकार सुनील कुमार के ईमानदार चेहरे की सामने रखकर सत्ता की तीसरी पाटी खेलना चाह रही है। भ्रष्ट अधिकारियों को संरक्षण देने ओर ईमानदार अधिकारियों को किनारे लगाकर प्रशासनिक आतंक फैलाने की जो छवि जनता पर बैठ रही है उससे भी दूर भागने की कोशिश हो रही है। लेकिन सब कुछ निरर्थक साबित होने लगा। कोल ब्लॉक मामले में सुनील कुमार की पहली झड़प मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह से होने की चर्चा भले ही परवान नहीं चढ़ी हो पर समय-समय पर यह चचा जरूर गर्म रही कि मंत्रियों क नाराजगी मुख्यसचिव से बए़ते जा रही हे।
ताजा मामला सुनील कुमार द्वारा अपने खिलाफ लगे आरोपों पर सीबीआई जांच की मांग की है। अपनी ईमानदार छवि के लिए पहचाने जाने वाले सुनील कुमार की इस मांग से पूरी सरकार सांसद में आ गई। क्योंकि फर्नीचर खरीदी में अनियमितता तो हुई है और सीबीआई जांच कराने का मतलब सरकार की बदनामी के सिवाय कुछ नही है। कांग्रेस ने भले ह इस मामले को राजनैतिक फायदे के लिए इस्तेमाल किया हो पर सुनील कुमार के रूख से सरकार के उन मंत्रियों की दिक्कत बढ़ गई जो स्वयं को ईमानदार मानते है।
भले ही मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह ने मंत्रियों आई अधिकारियों के बीच तत्तकालीन टकराव को टाल दिया हो पर सच तो यह है कि इससे सरकार की जितनी किरकिरी होनी थी हो चुकी। इधर इस पूरे घटनाक्रम पर राजनैतिक विश्वेषको की अलग ही नजरिया है। सुनील कुमार की छवि न केवल ईमानदार की रही है बल्कि सरकारी खर्चों पर मितव्ययता को लेकर भी वे मिसाल माने जाते हैं।
दूसरे आईएएस डीपी  मिश्रा की छवि भी ईमानदार अधिकारियों की रही है ऐसे में दोनों के खिलाफ जिस तरह से मंत्रियों क रूख रहा । भले ही वह शासकीय सेवा शर्तो के प्रतिफूल रहा हो पर इससे सरकार की छवि पर असर पड़ेगा।
तीसरी पार्टी की अकुलाहट और चुनावी सर्वेक्षण से भाजपा की राह कठिन है ऐसे अधिकारियों का रवैया साफ कह रहा ह ै कि सरकार में सब कुछ ठीक नहीं हो रहा है। वैसे भी सबको आचार संहिता का इंतजार है और आचार संहिता लगने के बाद ही अधिकारियों का रूख देखकर ही कुछ कहा जा सकता है। लोकतंत्र में आम धारणा है कि सरकार का चुनाव में क्या होगा यह सबसे पहले शासकीय सेवक मांप जाते है।
फिर समय का इंतजार किसे नहीं रहता। समय के आगे किसका जोर चलताह है। अर्जुन जैसे धर्नुधारी भी भीलों को गोपियों को ले जाने से नहीं रोक पाया ािा। ऐसे में न तो मुफ्त की बंदर बांट काम आती है और न ही भ्रष्ट पैसों की ताकत ही कुछ कर पाती है।

शनिवार, 28 सितंबर 2013

राजनेताओं से बढ़ते नक्सली संबंध !



भाजपा के पूर्व जिला उपाध्यक्ष शिवदयाल सिंह तोमर की हत्या करने वाले नक्सलियों में से एक लिंगा उर्फ विजय ने दावा किया है कि वे दंतेवाड़ा विधायक भीमा मंडावी के न केवल रिश्ते में भांजा है बल्कि वे विधायक से कई बार मिल चुके हैं। हालांकि विधायक ने रिश्तेदारी से इंकार किया है लेकिन इस तरह के आरोप प्रदेश सरकार के मंत्री हम विक्रय उसेंडी और सुश्री लता उसेंडी पर लगते रहे हैं। नक्सलियों को लेकर भाजपा सरकार पर भी सांठगांठ का आरोप नया नहीं है।
बस्तर के 12 सीट में से 11 सीट पर जीत फतह कर दो बार सत्ता में पहुंची भाजपा पर नक्सली सांठ गांठ का आरोप कांग्रेस प्रांरभ से ही लगाते रही है और झीरम घाटी में दिग्गज कांग्रेस वीसी शुक्ल, नंदकुमार पटेल की नक्सली हत्या पर तो कांग्रेस नेता भूपेश बघेल ने मुखिया के ब्रम्हास्त्र छोड़े जाने तक की बात कह दी थी।
छत्तीसगढ़ के 18 जिले नक्सलियों से प्रभावित है और हाल के सालों में नक्सली घटना में तेजी आई है। तत्कालीन कलेक्टर एलेक्स पाल मेनन की रिहाई को लेकर हुई सौदेबाजी से सरकार पर गंभीर आरोप लगे हैं।
ऐसा नहीं है कि आरोपों के जद में सिर्फ भाजपा और उसके नेता ही है बल्कि कांग्रेस पर तो नक्सली आन्दोलन को फलने-फूलने का अवसर देने का आरोप भाजपा लगाते रही है। बढ़ते नक्सली बरदात पर भाजपा सरकार असहाय है और वह सारा ठिकरा कांग्रेस पर मढ़ते रही है।
सच तो यह है कि हाल के वर्षों में नक्सली वारदातों में तेजी आई है बस्तर में लगभग पांच सौ गांव उजड़ गये है और यहां रहने वाले हजारों लोग किश्विर में रहने मजबूर है। लेकिन सरकार ने नक्सलियों के खिलाफ कभी बड़ी कार्रवाई की हिम्मत नहीं दिखाई।
बस्तर में पुलिस हताशा की ओर है। राजनैतिक दबाव में पुलिस कार्रवाई नहीं कर पा रही है और नक्सलियों के खिलाफ आन्दोलन कबड़ा करने वालों का सरकार ने भी साथ नहीं दिया। सलवा जुडूम आन्दोलन की असमय मौत से रमन सरकार कटघरे में है। ऐसे में यदि यह चर्चा वोटों पर है कि बस्तर में बगैर नक्सलियों से संबंध बनाये कोई नेता गिरी नही कर सकता तो यह सरकार के लिए ही नही राजनैतिक दलों के लिए भी न केवल चुनौति है बल्कि आम आदमी के लिए गंभीर बात है।
हम यहां रमन सरकार के नक्सली मोर्चे पर कई नाकामी की चर्चा नहीं करना चाहते हम तो सिर्फ   यहां नक्सलियों से नेताओं के बढ़ते संबंधों पर ही चिंता जाहिर करना चाहते है। राजनीति में सत्ता के लिए अपराधियों का सहारा लेने की वजह से आज विधानसभा और संसद की पवित्रता पर ग्रहण लग चुका है। सुप्रीम कोर्ट के निर्णय पर राजनैतिक दलों ने जिस एका से अपराध की नई परिभाषा गढ़ी है वह न केवल शर्मसार करने वाला है बल्कि स्वेच्छाचारिता का शर्मनाक उदाहरण भी है।
आज एक आम आदमी अपनी सुरक्षा के लिए बढ़ते अपराध से स्वयं को असुरक्षित महसूस कर रहा हो तब भला सरकार या राजनैतिक दलों के द्वारा समाज या देश विरोधियों से संबंध रखना निंदनीय ही नहीं शर्मसार करने वाला है। हम ऐसे किसी भी संबंधो के खिलाफ है जो आम आदमी के हितों पर कुढाराघात करता हो।
विधायक भीमा मंडावी की रिश्तेदारी या मेल मुलाकात की सरकार को ही उच्च स्तरीय जांच करानी चाहिए अन्यथा नक्सली बढ़ते रहेंगे और लोग भेड़ बकरी की तरह कटते रहेंगे।

शुक्रवार, 27 सितंबर 2013

सांप-छुछुंदर का खेल...


छत्तीसगढ़ में हो रहे विधानसभा चुनाव में भले ही कांगे्रस और भाजपा सत्ता के लिए जोड़ तोड़ में लग गये हो पर सच तो यह है कि दोनों ही दलों के लिए राह आसान नहीं है। स्वाभिमान मंच की बढ़ती ताकत से उन्हें भीतर तक हिला दिया है। सत्ता के लिए जादुई आंकड़े 46 पाना न तो भाजपा के लिए आसान है और न ही कांग्रेस के लिए ही आसान है।
प्रदेश के मुखिया रमन सिंह के लिए मुश्किल तभी से शुरू हो गया था जब भटगांव कोल ब्लॉक की कालिख भाजपा के तत्कालिन अध्यक्ष नीतिन गडकरी के चहेते संचेती ब्रदर्स के जटिये उन तक पहुंचने लगा था। भाजपा भले ही अपने मुखिया को साफ सुधरा बताये लेकिन कोल ब्लॉक कालिख से वह बच नहीं सकी है। रोगदा बांध एक उद्योग को बेचने के मामले में भी वह जनता के सामने निरूत्तर है जबकि इंदिरा बैंक घोटाले की नार्को सीडी ने तो सरकार के सभी दमदार मंत्रियों पर कालिख पो ही दी। भले ही सरकार हैट्रिक के सपने देख रही हो। सुराज से लेकर विकास का दावा कर रही हो पर सच तो यह है कि प्रशासनिक आतंक और भ्रष्टाचार से आम आदमी त्रस्त है।
किसानों की जमीनों को लेकर सरकार के दो मुंहे रवैये से जहां किसान नाराज है यहीं आरक्षण कटौति को लेकर सतनामी समाज की नाराजगी खुलकर सामने आ गई है। भाजपा की गुटबाजी भी सतह तक पहुंच गई है ऐसे में सिर्फ नरेन्द्र मोदी के सहारे सत्ता का सपना कैसे पूरा होगा कहना कठिन है।
कांग्रेस की गुटबाजी और अंर्तकलह के चलते कांग्रेस की राह भी मुश्किल हो गई है। उपर से रमन सरकार से नूरा कुश्ती और सेंटिंग की खबर ने आम कार्यकर्ताओं को हताशा के सिवाय कुछ नहीं मिल रहा है। जीरम घाटी से लेकर नार्को सीडी और संचेती से लेकर अदानी ग्रुप के मामले में कांग्रेस आक्रामक होने से बाचती रही है। अपनी सीट के चक्कर में सरकार से सौदे की खबर ने छोटे व नये टिकिटार्थीयों की राह कठिन कर दिया है। हालत यह है कि जोगी-वोरा-महंत, चौबे और न जाने कितने गुटों में बंटी कांग्रेस सरकार के करतुतों पर जुबान खोलने की बजाय आपस में ही विष दमन में मशगुल है।
भाजपा और कांग्रेस क इसी करतुत के चलते छत्तीसगढ़ में तीसरी ताकत को समर्थन मिलने लगा है। पहले से ही दो सीटों पर कब्जा जमाने वाली बसपा ही नहीं स्वाभिमान मंच को भी लोगों को जबरदस्त समर्थन मिलने लगा है। स्वाभिमान मंच का दावा है कि सत्ता की चाबी उसके पास ही रहेगी और वह कांग्रेस भाजपा को 30-30 सीटों से आगे नहीं बढऩे देगी ऐसे में बसपा ने भी अपनी सीटें बढ़ा ली तो कांग्रेस भाजपा की राह कठिन हो जायेगी।
वैसे भी जिस तरह से आरटीआई कानून, अपराधियों को लेकर सुप्रीम कोर्ट के फैसले और भ्रष्टाचार को लेकर कांग्रेस और भाजपा ने एका दिखाई है उससे नये राजनैतिक हालात बन रहे है। अब तो आम लोग भी कहने लगे है चोर-चोर मौसेटे भाई...!

शनिवार, 23 मार्च 2013

हां बंद कर दो अस्पताल!


छत्तीसगढ़ विधानसभा में विधायक श्याम सुंदर दास महंत के अपने क्षेत्र के अस्पतालों की दुर्दशा पर जब स्वास्थ्य मंत्री अमर अग्रवाल निरूत्तर होने लगे तो उन्होंने भले ही बहस खतम करने अस्पताल बंद कर देने की धमकी दी हो लेकिन सच तो यह है कि पूरे प्रदेश में स्वास्थ्य सुविधाओं का बुरा हाल है। निजी अस्पतालों की लूट का यह आलम है कि वे स्लाटर हाऊस में तब्दिल होते जा रहे हैं और इसकी वजह रमन सरकार की सरकारी अस्पतालों के प्रति बेसाखीे है।
रमन सरकार जानबुझकर निजी अस्पतालों को फायदा पहुंचाने सरकारी अस्पतालों को बरबाद कर रही है या नहीं यह तो वही जाने लेकिन आंकड़े बता रहे हैं कि यहां स्वास्थ्य सुविधाओं की स्थिति बदतर हो चुकी है।
अस्पताल के नाम पर केवल कहीं कहीं भवन है न डाक्टर है और न ही दवाईयां हैं। सरकारी डाक्टरों के निजी प्रेक्टिस की बात हो या जेनेटिक दवाईयॉ का मामला सरकार की नीति पूरी तरह फेल हो चुकी है। सरकार के लिए इसस शर्मनाक बात क्या हो सकती है कि वह डाक्टर नहीं मिलने की बात स्वीकार करने से भी परहेज नहीं करती।
राजधानी के मेकाहारा और जिला अस्पताल में जब डाक्टरों की कमी नहीं दूर हो रही है तब दुरस्थ अंचलों में क्या हाल होगा यह सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है।
हम रमन सरकार से स्पष्ट कर दें कि सरकारी अस्पतालों में डाक्टरों की यदि कमी है तो इसके लिए वह अपनी जिम्मेदारी से बच नहीं सकते करीना कपूर को नचाने या नई राजधानी में एशो आराम की सारी सुविधाएं उपलब्ध कराने या अपने वेतन-भत्ते बढ़ाने में परहेज नहीं करने वाली सरकार आखिर डाक्टरों की नियुक्ति में आकर्षक पैकेज की घोषणा क्यों नहीं करना चाहती। आखिर सरकार सर्वसुविधा युक्त अस्पताल हर जिला मुख्यालय में क्यों नहीं खोलना चाहती।
निजी डाक्टरों के गर्भाशय कांड, स्मार्ट कार्ड घोटाले पर वह दोषी डाक्टरों की प्रेक्टिस पर रोक क्यों नहीं लगाती। निजी डाक्टरों की लूट रोकने कड़े नियम क्यों नहीं बनते?
ऐसे कितने ही कारण गिनाये जा सकते हैं जो सरकार की नियत पर उंगली उठाने के लिए काफी है। सुविधाएं देंगे नहीं और अस्पताल बंद कर देने की धमकी किसे दी जा रही है?
स्वास्थ्य मंत्री से हम एक आग्रह जरूर करेंगे कि यदि वे अस्पतालों में डाक्टरों व दवाईयों का इंतजाम नहीं करवा सकते तो ऐसे अस्पताल बेंद कर ही देना चाहिए?
आखिर लोग भुलावे में क्यों रहे। सिर्फ नाम के अस्पताल से तो अच्छा है ऐसे अस्पताल न ही रहे।
हम यहां सरकार को याद दिला दें कि उनकी प्राथमिकता दो रूपये किलो चांवल बांटने तक ही नहीं है। उनकी प्राथमिकता स्वास्थ्य और शिक्षा भी है ओर इन दोनों ही मामलों में सरकार के रवैये की वजह से निजी संस्थानों ने न केवल लूट मचा रखी है बल्कि वे स्लाटर हाऊस में तब्दिल होने लगे है।
सरकार से हमारा यह भी आग्रह है कि वे अस्पतालों में डाक्टरों की नियुक्ति के लिए आकर्षक पैकेज दे ताकि उनका ध्यान निजी प्रेक्टिस की तरफ न जाए। आखिर देश में ऐसे कई संस्थान आज भी चल रहे हैं जहां काम करने वाले डाक्टर अपनी संस्थान के अलावा बाहर प्रेक्टिस नहीं करते? सरकार को लोगों के स्वास्थ्य का ध्यान रखने के लिए कड़े नियम बनाने चाहिए। अस्पताल बंद कर देने की धमकी कहीं से भी उचित नहीं है।

मंगलवार, 12 मार्च 2013

गुस्से की आग पर आश्वासन की बौछार...


आरक्षण कटौति पर आक्रोशित पिछड़े वर्ग ने कांकेर से राजधानी तक का सफर जब पैदल पूरा कर लिया तब सरकार केवल आश्वासन ही दे पाई। आरक्षण को लेकर सतनामी समाज भी नाराज है और सतनामी समाज की नाराजगी के चलते कुतुब मीनार से ऊंचा बने जैतखम्भ का पिछले दो साल से उद्घाटन नहीं हो पा रहा है।
इन दोनों वर्गो की नाराजगी जायज है या नहीं यह सवाल कतई नहीं है। सवाल है कि आखिर लोगों में इतना गुस्सा क्यों है कि वे अपने द्वारा चुने सरकार के आश्वासन पर भी भरोसा नहीं कर रहे हैं। सवाल यह भी नहीं है कि क्या रमन सरकार ने अपनी विश्वसनियता खो दी है। सवाल आश्वासन पर टूटते भरोसे का है। छत्तीसगढ़ राज्य बनने के पहले भी छला जाता रहा है और आज भी छला जा रहा है। सरकार में बैठे लोगों की संम्पति कई गुना बढ़ रही है तो दूसरी तरफ गरीबों की संख्या बढ़ रही है। 9 साल में रमन सिंह की सरकार भले ही विकास का कितना भी ढिढ़ोरा पिट ले लेकिन सच तो यह है कि वह अपने संकल्प तक को पूरा नहीं कर पाई है। हिन्दूत्व की दुहाई देने वाली भाजपा को संकल्प का मतलब समझाना पड़े तो लोगों को गुस्सा आना स्वाभाविक है।
आरक्षण की जटिलता को नजर अंदाज कर भी दे तो सरकार ने 9 सालों में क्या किया? उसने लोगों से किये वादे-संकल्प को पूरा क्यों नहीं किया। शिक्षा कर्मियों के संविलियन से लेकर दाल भात सेंटर चलाने के मामले में रमन सरकार फेल हो चुकी है।
राज्योत्सव और राजिम कुंभ पर अरबों रूपये खर्च करने का मतलब भी जनता जान चुकी है ग्राम सुराज हो या जनदर्शन सब नौटंकी साबित होने लगा है । विकास के नाम पर कोयले की कालिख और उद्योगों के लिए खेती की जमीनों की बरबादी के लिए छत्तीसगढ़ पूरे देश में कलंकित हुआ है तब भला लोग आश्वासन पर क्यों भरोसा करें।
हमारा भी मानना है कि चुनावी साल होने मांग रखने वालों का दबाव है लेकिन इन नौ सालों में सरकार के कामों की समीक्षा होनी चाहिए कि उसने जनता से वे वादे क्यों किये जो पूरे ही नहीं किये जा सकते थे।
राज्योत्सव, राजिम कुंभ, बायो डीजल से लेकर नई राजधानी के नाम पर फिजूल खर्ची सरकार की पहचान बन चुकी है। एक तरफ सरकार शिक्षा-स्वास्थ्य, सिचाई सुविधा को बढ़ाने जैसे खुद के कार्य से मुंह मोड़ रही है तो दूसरी तरफ निजी शिक्षण संस्थानों की लूट पर चुप्पी साध ली है। शाराब बंदी की बात तो वह करती है लेकिन जन विरोध को डंडे के जोर पर दबाने का प्रयास ही नहीं करती बल्कि शराब ठेकेदारों को गोद में बिठाती है।
मूलभूत सुविधाओं की अनदेखी के इतने उदाहरण है कि उसे गिना पाना संभव नहीं है। हर आवेदन हर शिकायत पर आश्वासन से लोग हैरान है। स्कूल नहीं है खोल दो पर शिक्षक की व्यवस्था नहीं होगी तो ऐसे स्कूल खोलने का क्या मतलब है?
सरकार की बदलती प्राथमिकता की वजह से ही आज लोग गुस्से में है  और चुनावी साल में यह गुस्सा फुटने लगा है।  कहने को तो सरकारों का काम आम लोगों के हितों की ध्यान रखना है और आम लोगों के हित में रोड़ा बनते कानून को बदल देना है लेकिन यहां तो अफसरशाही हावी है, वही योजना बनाई जा रही है जिसमें स्व हित सधे। ऐसे में आखिर कब तक आश्वासन पर लोग भरोसा करें।

बुधवार, 20 फ़रवरी 2013

सत्ता का दंभ


कहते है सत्ता आदमी को पागल कर देता है तो किसी को इतना दंभी बना देता है कि वह अपने आगे किसी को कुछ नहीं समझता । आजकल छत्तीसगढ़ में यही सब हो रहा है । सत्ता का असर कई भाजपाईयों में परवान चडऩे लगा है । कुर्सी पाते ही अनाप-शनाप कमाई के फेर में पड़े भाजपाईयों के लिए कानून व्यवस्था खेल बन कर रह गया है । हर हाल में पैसा कमाने की होड़ मची हुई है । और अदना सा कार्यकर्ता भी नियम कानून को हाथ में लेने से परहेज नहीं करता ।
यही वजह है कि पिछले दिनों राजनांदगांव के सांसद मधुसूदन यादव के प्रतिनिधि ने खनिज इंस्पेक्टर की सिर्फ इसलिए अपहरण कर पिटाई की क्योंकि उसने उसने अवैध खनिज परिवहन को पकड़ा था । ऐसा नहीं है कि सत्ता के दंभ पर किसी भाजपाईयों ने पहली बार ऐसा किया हो इससे पहले भी भाजपाई घपले बाजी को पकडऩे वाले अधिकारियों के साथ सार्वजनिक दुव्र्यवहार होता रहा है । चर्चा है कि शशिमोहन सिंह जैसे पुलिस अधिकारी के साथ तो एक मंत्री ने सीएम हाऊस में ही सिर्फ इसलिए दुव्र्यवहार किया था क्योंकि उन्होंने मिठाई में नकली खोवा मिलाने वाले एक भाजपाई के गिरेबान में हाथ डाल दिया था ।
सत्ता के दंभ का इससे बड़ा उदाहरण और क्या होगा कि राजधानी के कई नामी-गिरामी अपराधी बड़े-बड़े मंत्रियों के नाक के बाल बने हुए है । जिस प्रदीप गांधी को संसद में सवाल पूछने के एवज में बर्खास्त कर दिया गया हो वह मुख्यमंत्री के साथ कार्यक्रमों में हिस्सा ले और पार्टी में महत्वपूर्ण ओहदा दिया जाए सत्ता का दंभ नही तो और क्या है ।
ऐसा नहीं है कि सत्ता का दंभ केवल भाजपा में ही दिखाई पड़ता है क्रंाग्रेस में भी यही स्थिति है । बड़े पदों पर बैठे नेता अपने पद का प्रभाव बखूबी दिखाते है और ऐसे लोगों से गलबहियां करने से परहेज नहीं करते जिसकी वजह से पार्टी की छवि खराब हो सकती है ।
लेकिन आज छत्तीसगढ़ में सत्ता में भाजपा बैठी है इसलिए हम केवल इसी पर चर्चा कर रहे हैं क्रंाग्रेस के दंभ की चर्चा फिर कभी किया जायेगा ।
सत्ता के दंभ की वजह से ही छत्तीसगढ़ में राजनैतिक सूचिता को जमींदोज किया गया और प्रशासनिक आतंकवाद के आरोपों को सिरे से नकार दिया जाता है । रोगदा बांध बेचे जाने के मामले को बहुमत के आधार पर किलन चिट देना या 49 प्रतिशत शेयर के बाद भी संचेती की कंपनी को एम डी का पद देना क्या सत्ता का दंभ नहीं है । भ्रष्ट लोगों को संविदा देकर नौकरी पर वापस रखना और ईमानदारों को प्रताडि़त करना भी सत्ता का दंभी प्रवृति है । छत्तीसगढ़ में यह चरम पर है । कई अधिकारी आत्महत्या जैसे कदम उस चुके है जबकि कई अधिकारी छत्तीसगढ़ से चले जाने में ही अपनी भलाई समझ रहे हैं ।
आखिर चुनावी साल में सरकार क्या साबित करना चाहती है यह तो वही जान लेकिन सत्ता का दंभ कभी भी लंबे समय तक नहीं चला है । खासकर छत्तीसगढ़ के शांत प्रिय जनता को यह कभी रास नहीं आया हे । सत्ता के दम पर अपनी दूकान चलाने वालों को जनता ने ऐसा मजा चखाया है कि वे आज भी इससे उबर नहीं पाये हैं ।
इसी प्रदेश में ऐसे कई कांग्रेसी हैं जिनकी एक जमाने में तूती बोलती थी लेकिन आज वे अपना चुनाव तक नहीं जीत पाते । हम याद दिलाया चाहते हैं कि जब रावण का दंभ नहीं टिक पाया तो फिर किसका दंभ टिक पायेगा । यदि भाजपा वास्तव में हैट्रिक करना चाहती है तो उसे ऐसे दंभी लोगों को किनारे करना होगा । सत्ता का दंभ पर मनमानी को कोई बर्दाश्त नहीं करता और कालिख पूते चेहरे कभी भी अच्छे नहीं लगते । भले ही अपना प्रोडक्ट बेचने दाग अच्छे है का थीम हिट हो जाए लेकिन दाग कभी अच्छे नहीं लगते । यह कटु सच्चाई है और इसे नजर अंदाज नहीं किया जाना चाहिए ।

गुरुवार, 14 फ़रवरी 2013

सत्ता से समृद्धि...


कभी राजनीति समाज सेवा का सबसे सशक्त माध्यम हुआ करता था । सादा जीवन उच्च विचार के मूलमंत्र से अभिभूत राजनीति में आने वाले की सेवा भाव देखते ही बनती थी । कांग्रेस हो या भाजपा, समाजवादी हो या कम्यूनिष्ट सबके लिए समाज सेवा प्रथम लक्ष्य रहा । ऐसे कितने ही उदाहरण रहे जब इस देश में नेताओं ने राजनैतिक सुचिता के लिए सत्ता की कुरसी को लात मारने से भी परहेज नहीं किया । खुद छत्तीसगढ़ में बैठी रमन सरकार की पार्टी में ही अटल-आडवानी से लेकर कई नाम लोगों को जुबानी याद हैं जिन्होंने राजनैतिक सुचिता के लिए अपना सब कुछ होम कर दिया । लेकिन क्या अब इसी पार्टी में ऐसा हो रहा है । भाजपा ही क्यों किसी भी पार्टी में ऐसा नहीं हो रहा है । अपराधियों को संरक्षण से लेकर खुद भ्रष्टाचार में डुबे लोग सत्ता का केन्द्र बने हुए है और ऐसे लोग बड़ी बेशर्मी से राजनैतिक सुचिता, ईमानदारी की बात करते नहीं थकते ।
सत्ता के साथ बुराई के घालमेल को स्वाभाविकता की चासनी में पिरोने में भी किसी को शर्म नहीं आती और न ही अपने लिए समृद्धि का टापू बनाने से ही इन्हें कोई दिक्कत होती है । तभी तो छत्तीसगढ़ जैसे राज्य में शिक्षा-स्वास्थ के अभाव को नजर अंदाज कर नई राजधानी के नाम पर समृद्धि का टापू खड़ा कर दिया जाता है । इस टापू के एक-एक रास्ते के लिए रोशनी का ऐसा इंतजाम किया जाता है ताकि बिजली विहिन गांव की तरफ कभी ध्यान ही न जाए ।
मंत्रियों व अधिकारियों के बैठने के कमरों की भव्यता इतनी बढ़ा दी जाती है कि एक आम आदमी इस चकाचौंध में अपनी पीड़ा व्यस्त करने की हिमामत न कर सके ।
इस भव्यता पर गांधी के विचार पर चलने वाले कांग्रेसियों को भी इसलिए फर्क नहीं पड़ता क्योंकि वे भी कतार में है ।
ऐसे में राजनीति समाज सेवा का माध्यम की बजाय कार्पोरेट सेक्टरों की भव्यता की तरह व्यवसाय का जरिया बन गया हो तो भला किस पार्टी को आपत्ति होगी ? क्योंकि दूकानें तो किसी न किसी की चलनी ही है और जनता ही ठगी जायेगी । इस राजधानी ने ऐसे बहुत से लोगों को राजनीति में आते ही करोड़ पति अरबपति बनते देखा है जिनकी औकात दो कौड़ी की भी नहीं रही । जिनके घर दो टाईम का चूल्हा बमुश्किल से जलता था वे आज इस शहर के दान दाता बने है । जिनके खुद के मकान नहीं थे वे सैकड़ो एकड़ के मालिक है और जिनकी औकात एक पाव पीने की नहीं थी ओर आधा पाव का पैसा मिलाने शाम से ही टकटकी लगाए बैठे होते थे वे आज सबसे महंगी शराब ही नही पिलाते बल्कि अपने बेटे की शादी भी इतनी भव्यता से करते है कि सब देखते रह जाए ।
सत्ता से आई इस समृद्धि का यह सफर राजनीति को किस मुकाम तक ले जायेगा यह तो पता नहीं लेकिन एक बात तय है कि जनता की हाय लेकर की गई कमाई का एक बड़ा हिस्सा या तो बिगडै़ल औलाद उड़ा देते हें या फिर डाक्टर ले जाते हैं ।
जियो और जीने दो की संस्कृति से ओत प्रोत छत्तीसगढ़ में राज्य बनते ही जो परिवर्तन आया है उसकी कल्पना किसी ने नहीं की रही होगी । सत्ता से आ रही समृद्धि ने संवेदनहीनता को तो बढ़ाया ही हैे नैतिकता और राजनैतिक सुचिता पर भी चोंट की हैे ।
बेलगाम नौकर शाह और बढ़ते भ्रष्टाचार ने इस नये नवेले राज्य के विकास में रोड़ा अटका रहे हैं तो इसकी वजह जनप्रतिनिधियों की तामसी प्रवृति है जो वातानुकूलित कक्ष से ऐसे बुनियाद रखना चाहती है जिसका रास्ता विकास नहीं विनाश की ओर जाता है । क्या भाजयुमों के युवा सम्मेलन में समृद्धि का तामझाम सत्ता के रास्ते से नहीं आया है । और सत्ता की समृद्धि से विकास की सोच नहीं खुद की एय्याशी का बंदोबस्त ही होता है...