चुनाव के पहले न तो राजनैतिक दलों की अकुलाहट नई है और न ही प्रशासनिक अमलों का बदलता रूख ही नया है। लेकिन छत्तीसगढ़ में हैट्रिक में जुटी रमन सरकार के मंत्रियों और मुख्य सचिव सुनील कुमार के बीच टकराहट की खबर सुर्खियों में आना जरूर नया है।
कोयले की कालिख से लेकर इंदिरा बैंक घोटाले के नार्को सीडी तक भ्रष्टाचार में डुबी रमन सरकार ने जब सुनील कुमार को मुख्यसचिव बनाया था तभी से यह साफ दिखने लगा था कि सरकार सुनील कुमार के ईमानदार चेहरे की सामने रखकर सत्ता की तीसरी पाटी खेलना चाह रही है। भ्रष्ट अधिकारियों को संरक्षण देने ओर ईमानदार अधिकारियों को किनारे लगाकर प्रशासनिक आतंक फैलाने की जो छवि जनता पर बैठ रही है उससे भी दूर भागने की कोशिश हो रही है। लेकिन सब कुछ निरर्थक साबित होने लगा। कोल ब्लॉक मामले में सुनील कुमार की पहली झड़प मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह से होने की चर्चा भले ही परवान नहीं चढ़ी हो पर समय-समय पर यह चचा जरूर गर्म रही कि मंत्रियों क नाराजगी मुख्यसचिव से बए़ते जा रही हे।
ताजा मामला सुनील कुमार द्वारा अपने खिलाफ लगे आरोपों पर सीबीआई जांच की मांग की है। अपनी ईमानदार छवि के लिए पहचाने जाने वाले सुनील कुमार की इस मांग से पूरी सरकार सांसद में आ गई। क्योंकि फर्नीचर खरीदी में अनियमितता तो हुई है और सीबीआई जांच कराने का मतलब सरकार की बदनामी के सिवाय कुछ नही है। कांग्रेस ने भले ह इस मामले को राजनैतिक फायदे के लिए इस्तेमाल किया हो पर सुनील कुमार के रूख से सरकार के उन मंत्रियों की दिक्कत बढ़ गई जो स्वयं को ईमानदार मानते है।
भले ही मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह ने मंत्रियों आई अधिकारियों के बीच तत्तकालीन टकराव को टाल दिया हो पर सच तो यह है कि इससे सरकार की जितनी किरकिरी होनी थी हो चुकी। इधर इस पूरे घटनाक्रम पर राजनैतिक विश्वेषको की अलग ही नजरिया है। सुनील कुमार की छवि न केवल ईमानदार की रही है बल्कि सरकारी खर्चों पर मितव्ययता को लेकर भी वे मिसाल माने जाते हैं।
दूसरे आईएएस डीपी मिश्रा की छवि भी ईमानदार अधिकारियों की रही है ऐसे में दोनों के खिलाफ जिस तरह से मंत्रियों क रूख रहा । भले ही वह शासकीय सेवा शर्तो के प्रतिफूल रहा हो पर इससे सरकार की छवि पर असर पड़ेगा।
तीसरी पार्टी की अकुलाहट और चुनावी सर्वेक्षण से भाजपा की राह कठिन है ऐसे अधिकारियों का रवैया साफ कह रहा ह ै कि सरकार में सब कुछ ठीक नहीं हो रहा है। वैसे भी सबको आचार संहिता का इंतजार है और आचार संहिता लगने के बाद ही अधिकारियों का रूख देखकर ही कुछ कहा जा सकता है। लोकतंत्र में आम धारणा है कि सरकार का चुनाव में क्या होगा यह सबसे पहले शासकीय सेवक मांप जाते है।
फिर समय का इंतजार किसे नहीं रहता। समय के आगे किसका जोर चलताह है। अर्जुन जैसे धर्नुधारी भी भीलों को गोपियों को ले जाने से नहीं रोक पाया ािा। ऐसे में न तो मुफ्त की बंदर बांट काम आती है और न ही भ्रष्ट पैसों की ताकत ही कुछ कर पाती है।
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