कहने को तो लोकतंत्र में जनता की सरकार है पर क्या यह सच है। जनता की आवाज को कुचलने का कुचक्र नहीं हो रहा है। लोकतंत्र के संबैधानिक ढांचे को तोडऩे की कोशिश नहीं हो रही है। आज नेता के नाम से लोगों की जुबानं वजह उनकी अपनी करतूत है।
प्रदेश की हो या देश की। सरकार कहीं की भी हो सत्ता का दंभ साफ दिखाई दे रहा है। लोक लाज के मायने बदल गये हे तभी तो अपराधियों को संसद और विधानसभा में रोकने के पवित्र फैसले के खिलाफ adhyades. लाया gaya। सरकार इस पर चर्चा कराने तक से बच रही है। न्याय मंदिर के एक पवित्र फैसले को लात मारने की कोशिश लोकतंत्र को कहां ले जायेगी। इसके दुष्परिणाम को कौन भुगतेगा! यह तो समय के बाद ही पता चलेगा लेकिन इसके परिणाम गलत हो होगा यह साफ दिखाई दे रहा है।
लोकपाल बिल से लेकर आरटीआई कानून में राजनैतिक दलों को शामिल करने का मामला हो या अपने वेतन भत्ते या दूसरी सुविधाओं का मामला हो। सभी पार्टियां अपने हितों के लिए एक हो रही है। आम आदमी मरे या जिये उन्हें कोई सरोकार नहीं है। मिल बैठकर देश को लुटने की साजिश और अपनी सात पीढिय़ों की व्यवस्था में लगे लोग शायद ये भूल गये है कि इन सबसे उपर भी कोइ्र है जो बेआवाज लाढी से सब कुछ ठीक कर देगा।
देश की सरकार की करतूतों पर प्रहार करने वाली भाजपा छत्तीसगढ़ में सरकार बनी बैठील है। क्या उनकी करतूत कांग्रेस से कम है। भटगांव कोल ब्लॉक की कालिख का मामला हो या उद्योग को रोगदा बांध बेचने का मामला हो। उद्योगों के लिए जमीन छिनने का मामला हो या दूसरे हिस्सों की सुविधा छिन अपने बंगले या नई राजधानी पर करोड़ों अरबों खर्च करने का मामला हो। भयावह भ्रष्टाचार और भयावह नक्सली हमले क्या नहीं हो रहा है प्रदेश में। क्या यह सब बहुमत के दम पर नहीं हो रहा है।
भ्रष्टाचार में गले तक ढुबे अधिकारियों को अपनी गोद में सरकार नहीं बिठा रखी है। बाबूलाल अग्रवाल से लेकर न जाने कितने अधिकारी है जिन पर कार्रवाई लंबित रख कर महत्वपूर्ण पदों पर बिठाया गया है। ईमानदार माने जाने वाले अधिकारियों को प्रताडि़त करने की नई परम्परा शुरू की गई है। बिलासपुर के तत्कालीन पुलिस कप्तान राहुल शर्मा की हत्या (?)का मामला हो या राजधानी के पुलिस कप्तान का 6 माह के लिए छुट्टी पर जाने के आवेदन का मामला हो। कहां न्याय हो रहा है।
न्याय तो मुख्य सचिव सुनील कुमार के सीबीआई जांच के मामले की भी नहीं हो रही है। न्याय तो नक्सलियों से जनप्रतिनिधियों से संबंधो पर भी नहीं हो रही है। बहुमत के दम पर अपराधियों को खुले आम संरक्षण दिया जा रहा है। पत्रकारों पर हमले करने वालों में से एक सचिन मेघानी का सार्वजनिक सम्मान कर यदि सरकार यह सोचती है कि वह हैट्रिक भी मार लेगी तो वह गलत इसलिए नहीं सोचती क्योंकि वे लोग हैं भी इसी लायक ? यदि जैन मूतिर्यों के आरोपी को संरक्षण देने के बाद भी जीत का रास्ता देखा जाता है तो इसकी वजह साफ है कि सत्ता में दम है। तभी तो अन्ना हजारे का आन्दोलन प्रबल जनसमर्थन के बाद भी फिस्स हो गया। और अरविन्द केजरीवाल को सत्ता का रास्ता चुनना पड़ रहा है।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें