आरक्षण कटौति पर आक्रोशित पिछड़े वर्ग ने कांकेर से राजधानी तक का सफर जब पैदल पूरा कर लिया तब सरकार केवल आश्वासन ही दे पाई। आरक्षण को लेकर सतनामी समाज भी नाराज है और सतनामी समाज की नाराजगी के चलते कुतुब मीनार से ऊंचा बने जैतखम्भ का पिछले दो साल से उद्घाटन नहीं हो पा रहा है।
इन दोनों वर्गो की नाराजगी जायज है या नहीं यह सवाल कतई नहीं है। सवाल है कि आखिर लोगों में इतना गुस्सा क्यों है कि वे अपने द्वारा चुने सरकार के आश्वासन पर भी भरोसा नहीं कर रहे हैं। सवाल यह भी नहीं है कि क्या रमन सरकार ने अपनी विश्वसनियता खो दी है। सवाल आश्वासन पर टूटते भरोसे का है। छत्तीसगढ़ राज्य बनने के पहले भी छला जाता रहा है और आज भी छला जा रहा है। सरकार में बैठे लोगों की संम्पति कई गुना बढ़ रही है तो दूसरी तरफ गरीबों की संख्या बढ़ रही है। 9 साल में रमन सिंह की सरकार भले ही विकास का कितना भी ढिढ़ोरा पिट ले लेकिन सच तो यह है कि वह अपने संकल्प तक को पूरा नहीं कर पाई है। हिन्दूत्व की दुहाई देने वाली भाजपा को संकल्प का मतलब समझाना पड़े तो लोगों को गुस्सा आना स्वाभाविक है।
आरक्षण की जटिलता को नजर अंदाज कर भी दे तो सरकार ने 9 सालों में क्या किया? उसने लोगों से किये वादे-संकल्प को पूरा क्यों नहीं किया। शिक्षा कर्मियों के संविलियन से लेकर दाल भात सेंटर चलाने के मामले में रमन सरकार फेल हो चुकी है।
राज्योत्सव और राजिम कुंभ पर अरबों रूपये खर्च करने का मतलब भी जनता जान चुकी है ग्राम सुराज हो या जनदर्शन सब नौटंकी साबित होने लगा है । विकास के नाम पर कोयले की कालिख और उद्योगों के लिए खेती की जमीनों की बरबादी के लिए छत्तीसगढ़ पूरे देश में कलंकित हुआ है तब भला लोग आश्वासन पर क्यों भरोसा करें।
हमारा भी मानना है कि चुनावी साल होने मांग रखने वालों का दबाव है लेकिन इन नौ सालों में सरकार के कामों की समीक्षा होनी चाहिए कि उसने जनता से वे वादे क्यों किये जो पूरे ही नहीं किये जा सकते थे।
राज्योत्सव, राजिम कुंभ, बायो डीजल से लेकर नई राजधानी के नाम पर फिजूल खर्ची सरकार की पहचान बन चुकी है। एक तरफ सरकार शिक्षा-स्वास्थ्य, सिचाई सुविधा को बढ़ाने जैसे खुद के कार्य से मुंह मोड़ रही है तो दूसरी तरफ निजी शिक्षण संस्थानों की लूट पर चुप्पी साध ली है। शाराब बंदी की बात तो वह करती है लेकिन जन विरोध को डंडे के जोर पर दबाने का प्रयास ही नहीं करती बल्कि शराब ठेकेदारों को गोद में बिठाती है।
मूलभूत सुविधाओं की अनदेखी के इतने उदाहरण है कि उसे गिना पाना संभव नहीं है। हर आवेदन हर शिकायत पर आश्वासन से लोग हैरान है। स्कूल नहीं है खोल दो पर शिक्षक की व्यवस्था नहीं होगी तो ऐसे स्कूल खोलने का क्या मतलब है?
सरकार की बदलती प्राथमिकता की वजह से ही आज लोग गुस्से में है और चुनावी साल में यह गुस्सा फुटने लगा है। कहने को तो सरकारों का काम आम लोगों के हितों की ध्यान रखना है और आम लोगों के हित में रोड़ा बनते कानून को बदल देना है लेकिन यहां तो अफसरशाही हावी है, वही योजना बनाई जा रही है जिसमें स्व हित सधे। ऐसे में आखिर कब तक आश्वासन पर लोग भरोसा करें।
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