बुधवार, 25 दिसंबर 2013

कांग्रेस में भारी बदलाव के संकेत...


छत्तीसगढ़ कांग्रेस की कमान जिस आनन फानन में भूपेश बघेल को सौंपा गया वह हतप्रभ कर देने वाला है। चुपचाप हुए इस बदलाव को लेकर राजनैतिक अटकलें जोरों पर है। गुपचुप हुए इस बदलाव से साफ है कि अब कांग्रेस की राजनीति अपने पुराने ढर्रे से अलग समय के साथ चलने को कोशिश में है।
दो हजार तीन के चुनाव में सत्ता जाने के बाद प्रदेश कांग्रेस की राजनीति मोतीलाल वोरा के अनरूप चल रही थी। अजीत जोगी के विरोध और मोतीलाल वोरा के समर्थन के बीच कांग्रेस के नेताओं से लेकर कार्यकर्ताओं में आपाधायी रही। तमाम जोगी विरोधियों की एका भी यहां कुछ नहीं कर पा रहे थे तो इसकी वजह सत्ता का वह गोपनीय सुख भी रहा है जो रमन सरकार से गाहे-बगाहे मिलने लगा था।
लगातार पराजय से कांग्रेस के कार्यकर्ता हताश और निराश होने लगे थे तभी नंदकुमार पटेल की नियुक्ति ने नई जान फूंकने की कोशिश तो की लेकिन यह अंजाम तक नहीं पहुंच सका नक्सली हमले के बाद आई रिक्तता को भरने चरण दास महंत को अध्यक्ष तो बना दिया गया लेकिन उनकी नियुक्ति के साथ ही अपना संदेह जब विधानसभा चुनाव में सच साबित हुआ तब जब महंत का हटना तय माना तो जा रहा था लेकिन इसकी जगह में भूपेश बघेल की नियुक्ति हो जायेगी यह किसी ने नहीं सोचा था।
भूपेश बघेल आम तौर पर जोशिले नेता माने जाते है और कहा यह भी जाता है कि वे अपने जोश में यह भी भूल जाते है कि उनके कार्यों का फायदा भले ही पार्टी को मिले लेकिन उनका अपना नुकसान हो सकता है।
यही वजह है कि सीधा हमला बोलने में माहिर भूपेश बघेल को नेतृत्व देने से कांग्रेस बचते रही है। छत्तीसगढ़ स्वाभिमान यात्रा हो या झीरम घाटी में कांग्रेस नेताओं की हत्या के बाद रमन सिंह द्वारा ब्रम्हास्त्र चला देने का बोल हो पार्टी के दूसरे नेता असहज होते रहे है। लेकिन बघेल ने कभी इसकी परवाह नहीं की कि उनके बोल से उनका अहित हो सकता है।
यही वजह है कि वे किसी गुर विशेष से परे राजनीति करते रहे। भूपेश बघेल को वर्तमान राजनीति में भले ही जोगी विरोधी माना जाता रहा हो पर सच तो यह है कि वे विरोध की राजनीति पर भरोसा नहीं करते। यही वजह है कि तत्काल प्रतिक्रिया देने में माहिर भूपेश की नियुक्ति पर अजीत जोगी ने भी प्रशंसा की। पिछले दस सालों में सत्ता से सेटिंग कर कांग्रेस की राजनीति करने वाले भले ही इस नियुक्ति पर खुश न हो लेकिन एक आम कांग्रेसी खुश है कि छत्तीसगढ़ में अब कांग्रेस को बेचा नहीं जायेगा और लोकसभा चुनाव में बेहतर परिणाम आयेगा। राजनीति के समझदारों का यह भी कहना है कि भूपेश बघेल में ही वह ताकत है जो खेमेबाजी को साध सकते है।

जोगी को गुस्सा क्यों आता है...


अपने परिवार के राजनैतिक राह का फैसला सोनिया-राहुल गांधी के द्वारा करने का दावा करने वाले प्रदेश के पहले मुख्यमंत्री अजीत प्रमोद कुमार जोगी के लोकसभा चुनाव नहीं लडऩे की घोषणा कर कांग्रेस की राजनीति में एक बार फिर हलचल मचा दी है।
नये प्रदेशाध्यक्ष भूपेश बघेल की ताजपोशी की खबर के साथ ही आये अजीत जोगी के इस फैसले के मायने आसानी से इसलिए भी लगाये जा रहे है क्योंकि भूपेश बघेल को धुर जोगी विरोधी माना जाता है।  विधानसभा चुनाव की टिकिट को लेकर अजीत जोगी के तेवर किसी से छिपा नहीं है। ऐसे में भूपेश बघेल के पदभार ग्रहण और उससे पहले स्वागत के कार्यक्रम से जोगी परिवार की दूरी ही चर्चा का विषय नहीं है बल्कि चर्चा का विषय तो उनके लिए आसानी से उपलब्ध सरकारी विमान भी है। इस बात में जरा भी संदेह नहीं है कि छत्तीसगढ़ के कांग्रेसी राजनीति में जोगी के मुकाबले कोई नेता नहीं है और यही वजह है कि अब लोग मजाक में भी यह करने लगे हैं कि छत्तीसगढ़ में कांग्रेस की सत्ता में वापसी तब तक नहीं होगी जब तक अमित जोगी मुख्यमंत्री पद के लिए तैयार नहीं हो जाते। इस मजाक के मायने आसानी से लगाये जा सकते हैं। लेकिन पिछले तीन चुनाव में कांग्रेस की हार की जितनी भी समीक्षा हुई उसमें अजीत जोगी चर्चा के केन्द्र में रहे हैं। विधानसभा चुनाव हो या लोकसभा चुनाव कांग्रेस को जिस तरह से हार का मुंह देखना पड़ रहा है उसमें गुटबाजी ही प्रमुख वजह रही है और लगता है कांग्रेस के दिग्गज माने जाने वाले नेता लगातार पराजय के बाद भी सबक लेने को तैयार नहीं है। अजीत जोगी के प्रभाव वाले आरक्षित सीटों में कांग्रेस की हार को लेकर जिस तरह से जोगी निशाने में है उसके बाद भी अब कांग्रेस उसकी परवाह करे यह संभव नहीं दिख रहा है और यही वजह है कि प्रदेश अध्यक्ष की नियुक्ति की। खबर से अजीत जोगी भले ही एतराज नहीं कर पाये लेकिन चुनाव नहींं लडऩे की घोषणा नाखुशी जाहिर करने का माध्यम माना जा रहा है।
सत्ता में वापसी की आस में बैठी कांग्रेस के लिए चुनाव परिणाम जितना दुखद माना जा रहा है उससे ज्यादा परिणाम को लेकर आ रही खबरें दुखद है। पार्टी के ही नेताओं के द्वारा जिस पैमाने पर भीतरघात हुआ उससे तो इस तरह के परिणाम पहले से ही तय थे। अजीत जोगी ने चुनाव नहीं लडऩे की घोषणा का भले ही जो कारण बताये हो पर सच तो यही है कि यह एक तरह का गुस्से के सिवाय कुछ नही है जो दबाव की राजनीति का हिस्सा माना जाता है अब देखना है कि वे सरकारी विमान के सफर पर ज्यादा यकीन करते हैं या हाईकमान के निर्णय का...।

शुक्रवार, 20 दिसंबर 2013

लोकपाल तो पहले ही पास हो गया था...


एक समाजवादी नेता मुलायम सिंह को छोड़ सभी ने 46 साल से चली आ रही मांग को संसद के दोनों सदनों में झटके से पास कर अपनी पीठ थपथपाने में लगे हैं। मानों वे देश में व्याप्त भ्रष्टाचार के प्रति न केवल चिंतित है बल्कि वे इसका समूल नाश करने की ईच्छा रखते हैं। पर क्या सच यही हैं और यह सच है तब इसे इतने साल क्यों लगे। वास्तव में सच तो यह है कि लोकपाल बिल तो उसी दिन पास हो गया था। जब अन्ना हजारे के अनशन में पूरी देश लोकपाल के लिए खड़ा हो गया था। जनप्रतिनिधियों ने तो जनता के दबाव में केवल औपचारिकता निभाई है। हम पहले भी इसी जगह पर लिखते रहे हैं कि जनमत को नजर अंदाज कर न तो सरकार अपना भला कर सकती है और न ही इससे लोकतंत्र का ही भला होना है। सत्ता और बहुमत के दम पर इमरजेंसी तो लगाया जा सकता है लेकिन कुर्सी हासिल नहीं हो सकती है और यह देश इस बात की गवाह है।  सत्ता हासिल करने राजनीतिक दल वोट बैंक के खेल में सामाजिक-धार्मिक ध्रुवीकरण तक सत्ता तक पहुंच तो सकते हैं लेकिन यह खेल लंबा नहीं चलता। इस देश ने ऐसे किसी भी ध्रुवीकरण को कभी तरजीह नहीं देती। गंगा जमुनी संस्कृति पर प्रहार न तो कभी बर्दाश्त हुआ है और न ही बर्दाश्त किया जायेगा। लोकतंत्र को खंडित करते वोट बैंक की राजनीति पर हम फिर कभी चर्चा करेंगे आज तो 46 साल के लम्बे इंतजार के बाद पास हुए लोकपाल पर ही चर्चा होनी चाहिए। आखिर एक झटके में लोकपाल बिल पारित करने की जरूरत तमाम राजनैतिक दलों को क्यों आन पड़ी। यह एक ऐसा सवाल है जिसका जवाब अन्ना हजारे और केजरीवाल तक पहुंचता है। चार राज्यों के चुनाव परिणाम ने कांग्रेस को जितना सांसत में डाला उससे कहीं अधिक भाजपा को दिल्ली के नतीजे के सांसत में डाल दिया है।
सच तो यह है कि लोकपाल को लेकर अन्ना हजारे के आंदोलन की उपज आम आदमी पार्टी से भाजपा की बेचैनी बड़ गई है। भले ही यह बात मजाक में कही जा रही हो कि अन्ना हजारे ने अनशन में बैठने के बाद इसी सत्र में लोकपाल बिल पास कराने की जो चिट्ठी सोनिया गांधी और राजनाथ सिंह को भेजी थी उसके साथ अलग से एक पर्ची भी थी कि यदि इस सत्र में बिल पास न हुआ तो अभी तो एक केजरीवाल से परेशान हो और भी केजरीवाल खड़ा कर दूंगा।  सच तो यही है कि शीत सत्र में लोकपाल बिल पास करने की जल्दबाजी और एक जुटता भी इसी मजाक के हकीकत के आस पास ही है। आज लोग भ्रष्टाचार से त्रस्त है। अपने हिस्से का विकास पीडिय़ों के लिए जमा करते नेताओं और नौकरशाहों को देखकर वे आक्रोशित हैं लोकपाल बिल से इन पर अंकुश लगेगा और सभी पार्टियों में ईमानदार लोगों का महत्व बढ़ेगा इसी उम्मीद के साथ...।

तेजपाल के बहाने...


इस पत्रकारिता पर एक और धब्बा कहें या क्या कहें, पर पत्रकारिता को लेकर पिछले दशक भर से चल रही चर्चा में तहलका के संपादक तरूण तेजपाल कांड ने इस मिशन को फिर घेरे में लिया है।
तरूण तेजपाल ने जिस तरह की पत्रकारिता की थी उसमें का यह नि:संदेह निदंनीय है। जो लोग समाज में आईना है इन दिनों उन पर सबकी निगाह है ऐसे में उनके चरित्र और व्यवहार में नैतिकता होनी ही चाहिए।
छत्तीसगढ़ में पत्रकारिता का अपना एक इतिहास है। माधव राव सप्रे से लेकर ऐसे कितने ही नाम है जो पत्रकारिता की स्वच्छता के लिए आज भी संघर्ष कर रहे हैं। जिनका ध्येय सिर्फ लोगों तक खबरें परोसना ही नहीं है बल्कि समाज को कुरुतियों को दूर भगाना भी है। तरूण तेजपाल के मामले में भी न्याय होगा लेकिन हम उम्मीद करते है कि छत्तीसगढ़ में बैठे बड़े अखबार समूह पत्रकारिता को लेकर न केवल गंभीर होंगे बल्कि इसे कलंकित होने के किसी भी खबरों से दूर रखेंगे।
यह सच है कि बड़े बड़े समूहों ने सरकारी सुविधा जुटाने तिकड़म किया हो। सरकारी विज्ञापनों के लिए सरकार की तिमारदारी की हो पर छत्तीसगढ़ में पत्रकारिता आज भी गौरवशाली है तो इसकी वजह यहां के पत्रकार है जिन्होंने तमाम अवरोधों के बाद भी खबरों से समझौता नहीं किया। ताकत पर नौकरशाह और ताकतवर सरकार के खिलाफ लिखने से गुरेज नहीं किया और यह आगे भी जारी रहेगा।
छत्तीसगढ़ की पत्रकारिता में भी महिला पत्रकारों की कमी नहीं रही है। शशि परगनिहा, रत्ना वर्मा से लेकर ऐसे कितने ही नाम है जिन्होंने समय समय पर अपनी खबरो से हलचल मचाई है और अब तो प्राय: हर अखबार व न्यूज चैनलों के दफ्तरों में महिला पत्रकार देखे जा सकते हैं। उन पर दबाव का अंदेशा भी होता है। ऐसे में शोमा चौधरी, जैसे तेजपाल के सहयोगियों की भी कमी नहीं होगी लेकिन इस सबके बाद भी प्रबंधन को तय करना होगा कि वह ऐसी घटना पर सतर्क रहे ताकि पत्रकारिता पर कोई आंच न आये।
जिस तरह से अखबार समूह को अधिकाधिक धन कमाने की लालसा है कैसा ही आम लोगों की उम्मीद भी बढ़ी हुई है और आज का युवा तो सोशल नेटवर्क का इस्तेमाल कर खबरों का खुलासा कर ही देता है इसलिए बेवजह खबरें छुपाकर स्वयं को बदनाम करने की प्रवृत्ति से भी बचना चाहिए। तहलका के तरूण तेजपाल ने जिस तेजी से अपनी जगह बनाई थी उतनी तेजी सभी चाहते है पर यह ध्यान रहे कि आप जब सबका आईना बनते हो तो आईने में दाग का भी ध्यान रखे क्योंकि नैतिकता की दुहाई तभी अच्छी लगती है जब आप स्वयं नैतिकता पर चल रहे है। अन्यथा तरूण तेजपाल बनने में समय नहीं लगता।

सोमवार, 30 सितंबर 2013

पुलिसिया मनमानी पर सरकार की चुप्पी..!


छत्तीसगढ़ में पुलिस की मनमानी पर सरकार की नहीं चलती, शराब ठेकेदार, माफिया और राजनैतिक दबाव की आड़ में पुलिस कानून का मजाक बना रही है और गृह मंत्री ननकी राम कंवर कार्रवाई की बजाय बतोले बाजी में लगे हैं। मुख्यमंत्री से लेकर राजधानी के दो-दो मंत्रियों के रहते थानेदारों की करतूत चरम पर है7 आम लोगों का जीना दूभर होने लगा हे और अपराधिक तत्वों के हौसले बुलंद है।
दहेज मामले में बिना काऊसिंलिग के सीधे एफ आई आर दर्ज करने थाने में बिढाने के मामले में जब एएसपी श्वेता सिन्हा कहती है कि पुलिस के पास अधिकार है तो समझा जा सकता है कि वह क कहना चाह रही है।
ऐसा नहीं है कि पुलिसिया करतूत का यह पहला मामला है। पंडरी, मोवा, से लेकर गुढिय़ारी उरला तक पुलिस वालों का यही हाल है वर्दी के धौंस से आम आदमी का खून चूसने की कोशिश में लगी राजधानी पुलिस पर रिपोर्ट कर्ताओं से बदसलूकी, अपराधियों से सांठ-गांठ के ढेरो मामले हैं।
छत्तीसगढ़ पुलिस के बारे में गृहमंत्री ननकीराम कंवर का विधानसभा में यह कहना कि दस-दस हजार रूपये में शराब ठेकेदारों के हाथों थाने बिक रहे हैं समझा जा सकताह ै कि भाजपा राज का यह केसा सुराज है। गृहमंत्री ने एस पी को निकम्मा और कलेक्टर को दलाल तक का तमगा दिया है।
लेकिन प्रदेश के कथित साफ छवि वाले मुखिया को यह सब नहीं दिखता। नहीं दिखता तो शहर के मंत्रियों और जनप्रतिनिधि को भी लेकिन कोई कुछ नहीं कह रहा है।
जैनमूर्ति चोरी कांड हो या डाल्फिन स्कूल के संचालक राजेश शर्मा, सदर के सेठ मन्नू नत्थानी का मामला हो या मौदाहापारा में पुलिस वालों की भरपुर पिटाईका मामला हो। जनप्रतिनिधियों को कुछ नहीं दिखता। त्यौहारी सीजन से लेकर महिने के आखरी में यातायात के नाम पर वसूली का मामला हो जनप्रतिनिधि खामोश है।
पुलिसिया आतंक को सरकार का इस तरह से समर्थन और अपराधियों को संरक्षण ने राजधानी को अपराध गढ़ बना दिया है। विवदास्पद पुलिस वालों को संविदा देकर सरकार ने क्यया साबित किया है वह तो वही जाने लेकिन राजधानी के एस पी ओपी पॉल का 6 माह की छूट्टी का आवेदन यह साबित करने के लिए काफी है कि भाजपा सरकार की मंशा क्या है।
बिलासपुर के तत्कालीन एसपी राहुल शर्मा के अपराधी क्यों छुट्टी घूम रहे हैं और जब सत्ता में नहीं थी तब जिन पुलिस वालों का जुलूस निकालकर कार्रवाई की मांग की जा रही थी वे पुलिस वाले क्यों महत्वपूर्ण पदों पर बैठे हैं यह समझा जा सकता है।
अपराध गढ में तब्दिल होते राजधानी में पुलिसिया व्यवहार को लेकर अधिकारियों का प्रवचन सतत जारी है लेकिन महिना वसूलने में माहिर थाने दारों पर कार्रवाई की बजाय कमीशन लेने की परम्परा ने इस शांत प्रदेश को अशांत जरूर कर दिया है।

ये कैसा न्याय, कैसी सरकार...


कहने को तो लोकतंत्र में जनता की सरकार है पर क्या यह सच है। जनता की आवाज को कुचलने का कुचक्र नहीं हो रहा है। लोकतंत्र के संबैधानिक ढांचे को तोडऩे की कोशिश नहीं हो रही है। आज नेता के नाम से लोगों की जुबानं वजह उनकी अपनी करतूत है।
प्रदेश की हो या देश की। सरकार कहीं की भी हो सत्ता का दंभ साफ दिखाई दे रहा है। लोक लाज के मायने बदल गये हे तभी तो अपराधियों को संसद और विधानसभा में रोकने के पवित्र फैसले के खिलाफ adhyades. लाया gaya। सरकार इस पर चर्चा कराने तक से बच रही है। न्याय मंदिर के एक पवित्र फैसले को लात मारने की कोशिश लोकतंत्र को कहां ले जायेगी। इसके दुष्परिणाम को कौन भुगतेगा! यह तो समय के बाद ही पता चलेगा लेकिन इसके परिणाम गलत हो होगा यह साफ दिखाई दे रहा है।
लोकपाल बिल से लेकर आरटीआई कानून में राजनैतिक दलों को शामिल करने का मामला हो या अपने वेतन भत्ते या दूसरी सुविधाओं का मामला हो। सभी पार्टियां अपने हितों के लिए एक हो रही है। आम आदमी मरे या जिये उन्हें कोई सरोकार नहीं है। मिल बैठकर देश को लुटने की साजिश और अपनी सात पीढिय़ों की व्यवस्था में लगे लोग शायद ये भूल गये है कि इन सबसे उपर भी कोइ्र है जो बेआवाज लाढी से सब कुछ ठीक कर देगा।
देश की सरकार की करतूतों पर प्रहार करने वाली भाजपा छत्तीसगढ़ में सरकार बनी बैठील है। क्या उनकी करतूत कांग्रेस से कम है। भटगांव कोल ब्लॉक की कालिख का मामला हो या उद्योग को रोगदा बांध बेचने का मामला हो। उद्योगों के लिए जमीन छिनने का मामला हो या दूसरे हिस्सों की सुविधा छिन अपने बंगले या नई राजधानी पर करोड़ों अरबों खर्च करने का मामला हो। भयावह भ्रष्टाचार और भयावह नक्सली हमले क्या नहीं हो रहा है प्रदेश में। क्या यह सब बहुमत के दम पर नहीं हो रहा है।
भ्रष्टाचार में गले तक ढुबे अधिकारियों को अपनी गोद में सरकार नहीं बिठा रखी है। बाबूलाल अग्रवाल से लेकर न जाने कितने अधिकारी है जिन पर कार्रवाई लंबित रख कर महत्वपूर्ण पदों पर बिठाया गया है। ईमानदार माने जाने वाले अधिकारियों को प्रताडि़त करने की नई परम्परा शुरू की गई है। बिलासपुर के तत्कालीन पुलिस कप्तान राहुल शर्मा की हत्या (?)का मामला हो या राजधानी के पुलिस कप्तान का 6 माह के लिए छुट्टी पर जाने के आवेदन का मामला हो। कहां न्याय हो रहा है।
न्याय तो मुख्य सचिव सुनील कुमार के सीबीआई जांच के मामले की भी नहीं हो रही है। न्याय तो नक्सलियों से जनप्रतिनिधियों से संबंधो पर भी नहीं हो रही है। बहुमत के दम पर अपराधियों को खुले आम संरक्षण दिया जा रहा है। पत्रकारों पर हमले करने वालों में से एक सचिन मेघानी का सार्वजनिक सम्मान कर यदि सरकार यह सोचती है कि वह हैट्रिक भी मार लेगी तो वह गलत इसलिए नहीं सोचती क्योंकि वे लोग हैं भी इसी लायक ? यदि जैन मूतिर्यों के आरोपी को संरक्षण देने के बाद भी जीत का रास्ता देखा जाता है तो इसकी वजह साफ है कि सत्ता में दम है। तभी तो अन्ना हजारे का आन्दोलन प्रबल जनसमर्थन के बाद भी फिस्स हो गया। और अरविन्द केजरीवाल को सत्ता का रास्ता चुनना पड़ रहा है।

रविवार, 29 सितंबर 2013

समय होत बलवान्...



चुनाव के पहले न तो राजनैतिक दलों की अकुलाहट नई है और न ही प्रशासनिक अमलों का बदलता रूख ही नया है। लेकिन छत्तीसगढ़ में हैट्रिक में जुटी रमन सरकार के मंत्रियों और मुख्य सचिव सुनील कुमार के बीच टकराहट की खबर सुर्खियों में आना जरूर नया है।
कोयले की कालिख से लेकर इंदिरा बैंक घोटाले के नार्को सीडी तक भ्रष्टाचार में डुबी रमन सरकार ने जब सुनील कुमार को मुख्यसचिव  बनाया था तभी से यह साफ दिखने लगा था कि सरकार सुनील कुमार के ईमानदार चेहरे की सामने रखकर सत्ता की तीसरी पाटी खेलना चाह रही है। भ्रष्ट अधिकारियों को संरक्षण देने ओर ईमानदार अधिकारियों को किनारे लगाकर प्रशासनिक आतंक फैलाने की जो छवि जनता पर बैठ रही है उससे भी दूर भागने की कोशिश हो रही है। लेकिन सब कुछ निरर्थक साबित होने लगा। कोल ब्लॉक मामले में सुनील कुमार की पहली झड़प मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह से होने की चर्चा भले ही परवान नहीं चढ़ी हो पर समय-समय पर यह चचा जरूर गर्म रही कि मंत्रियों क नाराजगी मुख्यसचिव से बए़ते जा रही हे।
ताजा मामला सुनील कुमार द्वारा अपने खिलाफ लगे आरोपों पर सीबीआई जांच की मांग की है। अपनी ईमानदार छवि के लिए पहचाने जाने वाले सुनील कुमार की इस मांग से पूरी सरकार सांसद में आ गई। क्योंकि फर्नीचर खरीदी में अनियमितता तो हुई है और सीबीआई जांच कराने का मतलब सरकार की बदनामी के सिवाय कुछ नही है। कांग्रेस ने भले ह इस मामले को राजनैतिक फायदे के लिए इस्तेमाल किया हो पर सुनील कुमार के रूख से सरकार के उन मंत्रियों की दिक्कत बढ़ गई जो स्वयं को ईमानदार मानते है।
भले ही मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह ने मंत्रियों आई अधिकारियों के बीच तत्तकालीन टकराव को टाल दिया हो पर सच तो यह है कि इससे सरकार की जितनी किरकिरी होनी थी हो चुकी। इधर इस पूरे घटनाक्रम पर राजनैतिक विश्वेषको की अलग ही नजरिया है। सुनील कुमार की छवि न केवल ईमानदार की रही है बल्कि सरकारी खर्चों पर मितव्ययता को लेकर भी वे मिसाल माने जाते हैं।
दूसरे आईएएस डीपी  मिश्रा की छवि भी ईमानदार अधिकारियों की रही है ऐसे में दोनों के खिलाफ जिस तरह से मंत्रियों क रूख रहा । भले ही वह शासकीय सेवा शर्तो के प्रतिफूल रहा हो पर इससे सरकार की छवि पर असर पड़ेगा।
तीसरी पार्टी की अकुलाहट और चुनावी सर्वेक्षण से भाजपा की राह कठिन है ऐसे अधिकारियों का रवैया साफ कह रहा ह ै कि सरकार में सब कुछ ठीक नहीं हो रहा है। वैसे भी सबको आचार संहिता का इंतजार है और आचार संहिता लगने के बाद ही अधिकारियों का रूख देखकर ही कुछ कहा जा सकता है। लोकतंत्र में आम धारणा है कि सरकार का चुनाव में क्या होगा यह सबसे पहले शासकीय सेवक मांप जाते है।
फिर समय का इंतजार किसे नहीं रहता। समय के आगे किसका जोर चलताह है। अर्जुन जैसे धर्नुधारी भी भीलों को गोपियों को ले जाने से नहीं रोक पाया ािा। ऐसे में न तो मुफ्त की बंदर बांट काम आती है और न ही भ्रष्ट पैसों की ताकत ही कुछ कर पाती है।