बुधवार, 25 दिसंबर 2013

कांग्रेस में भारी बदलाव के संकेत...


छत्तीसगढ़ कांग्रेस की कमान जिस आनन फानन में भूपेश बघेल को सौंपा गया वह हतप्रभ कर देने वाला है। चुपचाप हुए इस बदलाव को लेकर राजनैतिक अटकलें जोरों पर है। गुपचुप हुए इस बदलाव से साफ है कि अब कांग्रेस की राजनीति अपने पुराने ढर्रे से अलग समय के साथ चलने को कोशिश में है।
दो हजार तीन के चुनाव में सत्ता जाने के बाद प्रदेश कांग्रेस की राजनीति मोतीलाल वोरा के अनरूप चल रही थी। अजीत जोगी के विरोध और मोतीलाल वोरा के समर्थन के बीच कांग्रेस के नेताओं से लेकर कार्यकर्ताओं में आपाधायी रही। तमाम जोगी विरोधियों की एका भी यहां कुछ नहीं कर पा रहे थे तो इसकी वजह सत्ता का वह गोपनीय सुख भी रहा है जो रमन सरकार से गाहे-बगाहे मिलने लगा था।
लगातार पराजय से कांग्रेस के कार्यकर्ता हताश और निराश होने लगे थे तभी नंदकुमार पटेल की नियुक्ति ने नई जान फूंकने की कोशिश तो की लेकिन यह अंजाम तक नहीं पहुंच सका नक्सली हमले के बाद आई रिक्तता को भरने चरण दास महंत को अध्यक्ष तो बना दिया गया लेकिन उनकी नियुक्ति के साथ ही अपना संदेह जब विधानसभा चुनाव में सच साबित हुआ तब जब महंत का हटना तय माना तो जा रहा था लेकिन इसकी जगह में भूपेश बघेल की नियुक्ति हो जायेगी यह किसी ने नहीं सोचा था।
भूपेश बघेल आम तौर पर जोशिले नेता माने जाते है और कहा यह भी जाता है कि वे अपने जोश में यह भी भूल जाते है कि उनके कार्यों का फायदा भले ही पार्टी को मिले लेकिन उनका अपना नुकसान हो सकता है।
यही वजह है कि सीधा हमला बोलने में माहिर भूपेश बघेल को नेतृत्व देने से कांग्रेस बचते रही है। छत्तीसगढ़ स्वाभिमान यात्रा हो या झीरम घाटी में कांग्रेस नेताओं की हत्या के बाद रमन सिंह द्वारा ब्रम्हास्त्र चला देने का बोल हो पार्टी के दूसरे नेता असहज होते रहे है। लेकिन बघेल ने कभी इसकी परवाह नहीं की कि उनके बोल से उनका अहित हो सकता है।
यही वजह है कि वे किसी गुर विशेष से परे राजनीति करते रहे। भूपेश बघेल को वर्तमान राजनीति में भले ही जोगी विरोधी माना जाता रहा हो पर सच तो यह है कि वे विरोध की राजनीति पर भरोसा नहीं करते। यही वजह है कि तत्काल प्रतिक्रिया देने में माहिर भूपेश की नियुक्ति पर अजीत जोगी ने भी प्रशंसा की। पिछले दस सालों में सत्ता से सेटिंग कर कांग्रेस की राजनीति करने वाले भले ही इस नियुक्ति पर खुश न हो लेकिन एक आम कांग्रेसी खुश है कि छत्तीसगढ़ में अब कांग्रेस को बेचा नहीं जायेगा और लोकसभा चुनाव में बेहतर परिणाम आयेगा। राजनीति के समझदारों का यह भी कहना है कि भूपेश बघेल में ही वह ताकत है जो खेमेबाजी को साध सकते है।

जोगी को गुस्सा क्यों आता है...


अपने परिवार के राजनैतिक राह का फैसला सोनिया-राहुल गांधी के द्वारा करने का दावा करने वाले प्रदेश के पहले मुख्यमंत्री अजीत प्रमोद कुमार जोगी के लोकसभा चुनाव नहीं लडऩे की घोषणा कर कांग्रेस की राजनीति में एक बार फिर हलचल मचा दी है।
नये प्रदेशाध्यक्ष भूपेश बघेल की ताजपोशी की खबर के साथ ही आये अजीत जोगी के इस फैसले के मायने आसानी से इसलिए भी लगाये जा रहे है क्योंकि भूपेश बघेल को धुर जोगी विरोधी माना जाता है।  विधानसभा चुनाव की टिकिट को लेकर अजीत जोगी के तेवर किसी से छिपा नहीं है। ऐसे में भूपेश बघेल के पदभार ग्रहण और उससे पहले स्वागत के कार्यक्रम से जोगी परिवार की दूरी ही चर्चा का विषय नहीं है बल्कि चर्चा का विषय तो उनके लिए आसानी से उपलब्ध सरकारी विमान भी है। इस बात में जरा भी संदेह नहीं है कि छत्तीसगढ़ के कांग्रेसी राजनीति में जोगी के मुकाबले कोई नेता नहीं है और यही वजह है कि अब लोग मजाक में भी यह करने लगे हैं कि छत्तीसगढ़ में कांग्रेस की सत्ता में वापसी तब तक नहीं होगी जब तक अमित जोगी मुख्यमंत्री पद के लिए तैयार नहीं हो जाते। इस मजाक के मायने आसानी से लगाये जा सकते हैं। लेकिन पिछले तीन चुनाव में कांग्रेस की हार की जितनी भी समीक्षा हुई उसमें अजीत जोगी चर्चा के केन्द्र में रहे हैं। विधानसभा चुनाव हो या लोकसभा चुनाव कांग्रेस को जिस तरह से हार का मुंह देखना पड़ रहा है उसमें गुटबाजी ही प्रमुख वजह रही है और लगता है कांग्रेस के दिग्गज माने जाने वाले नेता लगातार पराजय के बाद भी सबक लेने को तैयार नहीं है। अजीत जोगी के प्रभाव वाले आरक्षित सीटों में कांग्रेस की हार को लेकर जिस तरह से जोगी निशाने में है उसके बाद भी अब कांग्रेस उसकी परवाह करे यह संभव नहीं दिख रहा है और यही वजह है कि प्रदेश अध्यक्ष की नियुक्ति की। खबर से अजीत जोगी भले ही एतराज नहीं कर पाये लेकिन चुनाव नहींं लडऩे की घोषणा नाखुशी जाहिर करने का माध्यम माना जा रहा है।
सत्ता में वापसी की आस में बैठी कांग्रेस के लिए चुनाव परिणाम जितना दुखद माना जा रहा है उससे ज्यादा परिणाम को लेकर आ रही खबरें दुखद है। पार्टी के ही नेताओं के द्वारा जिस पैमाने पर भीतरघात हुआ उससे तो इस तरह के परिणाम पहले से ही तय थे। अजीत जोगी ने चुनाव नहीं लडऩे की घोषणा का भले ही जो कारण बताये हो पर सच तो यही है कि यह एक तरह का गुस्से के सिवाय कुछ नही है जो दबाव की राजनीति का हिस्सा माना जाता है अब देखना है कि वे सरकारी विमान के सफर पर ज्यादा यकीन करते हैं या हाईकमान के निर्णय का...।

शुक्रवार, 20 दिसंबर 2013

लोकपाल तो पहले ही पास हो गया था...


एक समाजवादी नेता मुलायम सिंह को छोड़ सभी ने 46 साल से चली आ रही मांग को संसद के दोनों सदनों में झटके से पास कर अपनी पीठ थपथपाने में लगे हैं। मानों वे देश में व्याप्त भ्रष्टाचार के प्रति न केवल चिंतित है बल्कि वे इसका समूल नाश करने की ईच्छा रखते हैं। पर क्या सच यही हैं और यह सच है तब इसे इतने साल क्यों लगे। वास्तव में सच तो यह है कि लोकपाल बिल तो उसी दिन पास हो गया था। जब अन्ना हजारे के अनशन में पूरी देश लोकपाल के लिए खड़ा हो गया था। जनप्रतिनिधियों ने तो जनता के दबाव में केवल औपचारिकता निभाई है। हम पहले भी इसी जगह पर लिखते रहे हैं कि जनमत को नजर अंदाज कर न तो सरकार अपना भला कर सकती है और न ही इससे लोकतंत्र का ही भला होना है। सत्ता और बहुमत के दम पर इमरजेंसी तो लगाया जा सकता है लेकिन कुर्सी हासिल नहीं हो सकती है और यह देश इस बात की गवाह है।  सत्ता हासिल करने राजनीतिक दल वोट बैंक के खेल में सामाजिक-धार्मिक ध्रुवीकरण तक सत्ता तक पहुंच तो सकते हैं लेकिन यह खेल लंबा नहीं चलता। इस देश ने ऐसे किसी भी ध्रुवीकरण को कभी तरजीह नहीं देती। गंगा जमुनी संस्कृति पर प्रहार न तो कभी बर्दाश्त हुआ है और न ही बर्दाश्त किया जायेगा। लोकतंत्र को खंडित करते वोट बैंक की राजनीति पर हम फिर कभी चर्चा करेंगे आज तो 46 साल के लम्बे इंतजार के बाद पास हुए लोकपाल पर ही चर्चा होनी चाहिए। आखिर एक झटके में लोकपाल बिल पारित करने की जरूरत तमाम राजनैतिक दलों को क्यों आन पड़ी। यह एक ऐसा सवाल है जिसका जवाब अन्ना हजारे और केजरीवाल तक पहुंचता है। चार राज्यों के चुनाव परिणाम ने कांग्रेस को जितना सांसत में डाला उससे कहीं अधिक भाजपा को दिल्ली के नतीजे के सांसत में डाल दिया है।
सच तो यह है कि लोकपाल को लेकर अन्ना हजारे के आंदोलन की उपज आम आदमी पार्टी से भाजपा की बेचैनी बड़ गई है। भले ही यह बात मजाक में कही जा रही हो कि अन्ना हजारे ने अनशन में बैठने के बाद इसी सत्र में लोकपाल बिल पास कराने की जो चिट्ठी सोनिया गांधी और राजनाथ सिंह को भेजी थी उसके साथ अलग से एक पर्ची भी थी कि यदि इस सत्र में बिल पास न हुआ तो अभी तो एक केजरीवाल से परेशान हो और भी केजरीवाल खड़ा कर दूंगा।  सच तो यही है कि शीत सत्र में लोकपाल बिल पास करने की जल्दबाजी और एक जुटता भी इसी मजाक के हकीकत के आस पास ही है। आज लोग भ्रष्टाचार से त्रस्त है। अपने हिस्से का विकास पीडिय़ों के लिए जमा करते नेताओं और नौकरशाहों को देखकर वे आक्रोशित हैं लोकपाल बिल से इन पर अंकुश लगेगा और सभी पार्टियों में ईमानदार लोगों का महत्व बढ़ेगा इसी उम्मीद के साथ...।

तेजपाल के बहाने...


इस पत्रकारिता पर एक और धब्बा कहें या क्या कहें, पर पत्रकारिता को लेकर पिछले दशक भर से चल रही चर्चा में तहलका के संपादक तरूण तेजपाल कांड ने इस मिशन को फिर घेरे में लिया है।
तरूण तेजपाल ने जिस तरह की पत्रकारिता की थी उसमें का यह नि:संदेह निदंनीय है। जो लोग समाज में आईना है इन दिनों उन पर सबकी निगाह है ऐसे में उनके चरित्र और व्यवहार में नैतिकता होनी ही चाहिए।
छत्तीसगढ़ में पत्रकारिता का अपना एक इतिहास है। माधव राव सप्रे से लेकर ऐसे कितने ही नाम है जो पत्रकारिता की स्वच्छता के लिए आज भी संघर्ष कर रहे हैं। जिनका ध्येय सिर्फ लोगों तक खबरें परोसना ही नहीं है बल्कि समाज को कुरुतियों को दूर भगाना भी है। तरूण तेजपाल के मामले में भी न्याय होगा लेकिन हम उम्मीद करते है कि छत्तीसगढ़ में बैठे बड़े अखबार समूह पत्रकारिता को लेकर न केवल गंभीर होंगे बल्कि इसे कलंकित होने के किसी भी खबरों से दूर रखेंगे।
यह सच है कि बड़े बड़े समूहों ने सरकारी सुविधा जुटाने तिकड़म किया हो। सरकारी विज्ञापनों के लिए सरकार की तिमारदारी की हो पर छत्तीसगढ़ में पत्रकारिता आज भी गौरवशाली है तो इसकी वजह यहां के पत्रकार है जिन्होंने तमाम अवरोधों के बाद भी खबरों से समझौता नहीं किया। ताकत पर नौकरशाह और ताकतवर सरकार के खिलाफ लिखने से गुरेज नहीं किया और यह आगे भी जारी रहेगा।
छत्तीसगढ़ की पत्रकारिता में भी महिला पत्रकारों की कमी नहीं रही है। शशि परगनिहा, रत्ना वर्मा से लेकर ऐसे कितने ही नाम है जिन्होंने समय समय पर अपनी खबरो से हलचल मचाई है और अब तो प्राय: हर अखबार व न्यूज चैनलों के दफ्तरों में महिला पत्रकार देखे जा सकते हैं। उन पर दबाव का अंदेशा भी होता है। ऐसे में शोमा चौधरी, जैसे तेजपाल के सहयोगियों की भी कमी नहीं होगी लेकिन इस सबके बाद भी प्रबंधन को तय करना होगा कि वह ऐसी घटना पर सतर्क रहे ताकि पत्रकारिता पर कोई आंच न आये।
जिस तरह से अखबार समूह को अधिकाधिक धन कमाने की लालसा है कैसा ही आम लोगों की उम्मीद भी बढ़ी हुई है और आज का युवा तो सोशल नेटवर्क का इस्तेमाल कर खबरों का खुलासा कर ही देता है इसलिए बेवजह खबरें छुपाकर स्वयं को बदनाम करने की प्रवृत्ति से भी बचना चाहिए। तहलका के तरूण तेजपाल ने जिस तेजी से अपनी जगह बनाई थी उतनी तेजी सभी चाहते है पर यह ध्यान रहे कि आप जब सबका आईना बनते हो तो आईने में दाग का भी ध्यान रखे क्योंकि नैतिकता की दुहाई तभी अच्छी लगती है जब आप स्वयं नैतिकता पर चल रहे है। अन्यथा तरूण तेजपाल बनने में समय नहीं लगता।