शनिवार, 23 मार्च 2013

हां बंद कर दो अस्पताल!


छत्तीसगढ़ विधानसभा में विधायक श्याम सुंदर दास महंत के अपने क्षेत्र के अस्पतालों की दुर्दशा पर जब स्वास्थ्य मंत्री अमर अग्रवाल निरूत्तर होने लगे तो उन्होंने भले ही बहस खतम करने अस्पताल बंद कर देने की धमकी दी हो लेकिन सच तो यह है कि पूरे प्रदेश में स्वास्थ्य सुविधाओं का बुरा हाल है। निजी अस्पतालों की लूट का यह आलम है कि वे स्लाटर हाऊस में तब्दिल होते जा रहे हैं और इसकी वजह रमन सरकार की सरकारी अस्पतालों के प्रति बेसाखीे है।
रमन सरकार जानबुझकर निजी अस्पतालों को फायदा पहुंचाने सरकारी अस्पतालों को बरबाद कर रही है या नहीं यह तो वही जाने लेकिन आंकड़े बता रहे हैं कि यहां स्वास्थ्य सुविधाओं की स्थिति बदतर हो चुकी है।
अस्पताल के नाम पर केवल कहीं कहीं भवन है न डाक्टर है और न ही दवाईयां हैं। सरकारी डाक्टरों के निजी प्रेक्टिस की बात हो या जेनेटिक दवाईयॉ का मामला सरकार की नीति पूरी तरह फेल हो चुकी है। सरकार के लिए इसस शर्मनाक बात क्या हो सकती है कि वह डाक्टर नहीं मिलने की बात स्वीकार करने से भी परहेज नहीं करती।
राजधानी के मेकाहारा और जिला अस्पताल में जब डाक्टरों की कमी नहीं दूर हो रही है तब दुरस्थ अंचलों में क्या हाल होगा यह सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है।
हम रमन सरकार से स्पष्ट कर दें कि सरकारी अस्पतालों में डाक्टरों की यदि कमी है तो इसके लिए वह अपनी जिम्मेदारी से बच नहीं सकते करीना कपूर को नचाने या नई राजधानी में एशो आराम की सारी सुविधाएं उपलब्ध कराने या अपने वेतन-भत्ते बढ़ाने में परहेज नहीं करने वाली सरकार आखिर डाक्टरों की नियुक्ति में आकर्षक पैकेज की घोषणा क्यों नहीं करना चाहती। आखिर सरकार सर्वसुविधा युक्त अस्पताल हर जिला मुख्यालय में क्यों नहीं खोलना चाहती।
निजी डाक्टरों के गर्भाशय कांड, स्मार्ट कार्ड घोटाले पर वह दोषी डाक्टरों की प्रेक्टिस पर रोक क्यों नहीं लगाती। निजी डाक्टरों की लूट रोकने कड़े नियम क्यों नहीं बनते?
ऐसे कितने ही कारण गिनाये जा सकते हैं जो सरकार की नियत पर उंगली उठाने के लिए काफी है। सुविधाएं देंगे नहीं और अस्पताल बंद कर देने की धमकी किसे दी जा रही है?
स्वास्थ्य मंत्री से हम एक आग्रह जरूर करेंगे कि यदि वे अस्पतालों में डाक्टरों व दवाईयों का इंतजाम नहीं करवा सकते तो ऐसे अस्पताल बेंद कर ही देना चाहिए?
आखिर लोग भुलावे में क्यों रहे। सिर्फ नाम के अस्पताल से तो अच्छा है ऐसे अस्पताल न ही रहे।
हम यहां सरकार को याद दिला दें कि उनकी प्राथमिकता दो रूपये किलो चांवल बांटने तक ही नहीं है। उनकी प्राथमिकता स्वास्थ्य और शिक्षा भी है ओर इन दोनों ही मामलों में सरकार के रवैये की वजह से निजी संस्थानों ने न केवल लूट मचा रखी है बल्कि वे स्लाटर हाऊस में तब्दिल होने लगे है।
सरकार से हमारा यह भी आग्रह है कि वे अस्पतालों में डाक्टरों की नियुक्ति के लिए आकर्षक पैकेज दे ताकि उनका ध्यान निजी प्रेक्टिस की तरफ न जाए। आखिर देश में ऐसे कई संस्थान आज भी चल रहे हैं जहां काम करने वाले डाक्टर अपनी संस्थान के अलावा बाहर प्रेक्टिस नहीं करते? सरकार को लोगों के स्वास्थ्य का ध्यान रखने के लिए कड़े नियम बनाने चाहिए। अस्पताल बंद कर देने की धमकी कहीं से भी उचित नहीं है।

मंगलवार, 12 मार्च 2013

गुस्से की आग पर आश्वासन की बौछार...


आरक्षण कटौति पर आक्रोशित पिछड़े वर्ग ने कांकेर से राजधानी तक का सफर जब पैदल पूरा कर लिया तब सरकार केवल आश्वासन ही दे पाई। आरक्षण को लेकर सतनामी समाज भी नाराज है और सतनामी समाज की नाराजगी के चलते कुतुब मीनार से ऊंचा बने जैतखम्भ का पिछले दो साल से उद्घाटन नहीं हो पा रहा है।
इन दोनों वर्गो की नाराजगी जायज है या नहीं यह सवाल कतई नहीं है। सवाल है कि आखिर लोगों में इतना गुस्सा क्यों है कि वे अपने द्वारा चुने सरकार के आश्वासन पर भी भरोसा नहीं कर रहे हैं। सवाल यह भी नहीं है कि क्या रमन सरकार ने अपनी विश्वसनियता खो दी है। सवाल आश्वासन पर टूटते भरोसे का है। छत्तीसगढ़ राज्य बनने के पहले भी छला जाता रहा है और आज भी छला जा रहा है। सरकार में बैठे लोगों की संम्पति कई गुना बढ़ रही है तो दूसरी तरफ गरीबों की संख्या बढ़ रही है। 9 साल में रमन सिंह की सरकार भले ही विकास का कितना भी ढिढ़ोरा पिट ले लेकिन सच तो यह है कि वह अपने संकल्प तक को पूरा नहीं कर पाई है। हिन्दूत्व की दुहाई देने वाली भाजपा को संकल्प का मतलब समझाना पड़े तो लोगों को गुस्सा आना स्वाभाविक है।
आरक्षण की जटिलता को नजर अंदाज कर भी दे तो सरकार ने 9 सालों में क्या किया? उसने लोगों से किये वादे-संकल्प को पूरा क्यों नहीं किया। शिक्षा कर्मियों के संविलियन से लेकर दाल भात सेंटर चलाने के मामले में रमन सरकार फेल हो चुकी है।
राज्योत्सव और राजिम कुंभ पर अरबों रूपये खर्च करने का मतलब भी जनता जान चुकी है ग्राम सुराज हो या जनदर्शन सब नौटंकी साबित होने लगा है । विकास के नाम पर कोयले की कालिख और उद्योगों के लिए खेती की जमीनों की बरबादी के लिए छत्तीसगढ़ पूरे देश में कलंकित हुआ है तब भला लोग आश्वासन पर क्यों भरोसा करें।
हमारा भी मानना है कि चुनावी साल होने मांग रखने वालों का दबाव है लेकिन इन नौ सालों में सरकार के कामों की समीक्षा होनी चाहिए कि उसने जनता से वे वादे क्यों किये जो पूरे ही नहीं किये जा सकते थे।
राज्योत्सव, राजिम कुंभ, बायो डीजल से लेकर नई राजधानी के नाम पर फिजूल खर्ची सरकार की पहचान बन चुकी है। एक तरफ सरकार शिक्षा-स्वास्थ्य, सिचाई सुविधा को बढ़ाने जैसे खुद के कार्य से मुंह मोड़ रही है तो दूसरी तरफ निजी शिक्षण संस्थानों की लूट पर चुप्पी साध ली है। शाराब बंदी की बात तो वह करती है लेकिन जन विरोध को डंडे के जोर पर दबाने का प्रयास ही नहीं करती बल्कि शराब ठेकेदारों को गोद में बिठाती है।
मूलभूत सुविधाओं की अनदेखी के इतने उदाहरण है कि उसे गिना पाना संभव नहीं है। हर आवेदन हर शिकायत पर आश्वासन से लोग हैरान है। स्कूल नहीं है खोल दो पर शिक्षक की व्यवस्था नहीं होगी तो ऐसे स्कूल खोलने का क्या मतलब है?
सरकार की बदलती प्राथमिकता की वजह से ही आज लोग गुस्से में है  और चुनावी साल में यह गुस्सा फुटने लगा है।  कहने को तो सरकारों का काम आम लोगों के हितों की ध्यान रखना है और आम लोगों के हित में रोड़ा बनते कानून को बदल देना है लेकिन यहां तो अफसरशाही हावी है, वही योजना बनाई जा रही है जिसमें स्व हित सधे। ऐसे में आखिर कब तक आश्वासन पर लोग भरोसा करें।